Monday, January 30, 2012

स्वर्ग और नर्क



©संध्या पेडणेकर
स्वर्ग और नर्क के बारे में लोगों की अलग-अलग धारणाएं हैं। कोई कश्मीर का प्राकृतिक सौंदर्य देख कर कहता है कि धरती का स्वर्ग यही है , तो कोई रमणी के सौंदर्य में या उसके साथ बिताए क्षणों में स्वर्ग प्राप्ति का दावा करता है ,तो किसी को बच्चे की मासूम मुस्कराहट में स्वर्ग की झलक मिलती है। इसी तरह बेहद कष्टपूर्ण जीवन को कोई नर्क कहता है। भाइयों , पति-पत्नी , सास-बहू , भाभी-देवर के आपसी रिश्तों की वजह से कलह पैदा होता है , तब कोई घर को नर्क कहता है तो कभी कोई दूसरों द्वारा पहुंचाई गई पीड़ा को नारकीय कहता है। वैसे , स्वर्ग और नर्क कहीं है या नहीं है , क्या ये केवल कल्पनाएं हैं- इस बारे में तार्किकविचारों में पड़ना व्यर्थ है , क्योंकि हर किसी के मन में कहीं न कहीं स्पष्ट- अस्पष्ट रूप से ये कल्पनाएं होती ही हैं।
स्वर्ग और नर्क के साथ दो बातें जुड़ी हैं- पुण्य और पाप। सबके मन में यह होता है कि पुण्य करने वाले स्वर्ग जाते हैं और पाप करने वाले नर्क। पुण्याचरण अच्छे कर्मों से होता है और अच्छे कर्मों के सहारे हमें स्वर्ग मिल सकता है। पापाचरण बुरे कामों से होता है और पापाचरण से हम अपने लिए नर्क का द्वार खोल देते हैं। पाप-पुण्य को धर्म हमें समझाता है। अच्छे काम धर्म के बताए मार्ग पर चलकर किए जा सकते हैं तो बुरे काम क्या हैं यह समझने में भी धर्म हमारी सहायता करता है। थोड़ा विस्तार से देखें तो धर्म हमें भक्ति के साथ ही दान , दया , क्षमा , शांति ,सौहार्द , प्रेम आदि सभी सद्गुणों की और घृणा , द्वेष , तिरस्कार , क्रूरता , लालच आदि बुरे गुणों की पहचान बताता है। धार्मिक साहित्य अच्छे और बुरे गुणों की आसान ढंग से सही-सही पहचान करने के लिए हमारे सामने इन गुणों से संपन्न चरित्रों को रखता है। राम , कृष्ण , विष्णु , लक्ष्मी , सीता , रूक्मिणी , मंदोदरी , लक्ष्मण ,हनुमान , भीष्म , कर्ण के सहारे पुण्याचरण की तथा रावण , दुर्योधन , शकुनी , हिरण्यकश्यप , पूतना , मंथरा आदि चरित्रों के सहारे पापाचरण की धर्म हमें पहचान कराता है। इन उदाहरणों से सीख लेकर हम नर्क के रास्ते से बच कर स्वर्ग की प्राप्ति कर सकते हैं।
गफलत तब होती है जब हम येन केन प्रकारेण सांसारिक सुखों के साथ स्वर्ग की प्राप्ति भी कर लेना चाहते हैं। हमअच्छे गुणों की प्रशंसा में लग जाते हैं और अपने लिए कोई अनुकूल मार्ग ढूंढ लेते हैं। यानी , अच्छाई को हम मंदिरों में कैद कर देते हैं और जीवन में समयानुसार जो कार्यसिद्धि कराता हो , उस मार्ग को अपनाते हैं। यानी ऐहिक सुख और स्वर्ग पाने की अभिलाषा में हम अवसरवादी हो जाते हैं। नौकरी पाने के लिए घूस देनी पड़े ,छल-कपट करना पड़े , तो कर लेते हैं और मंदिरों में जाकर भक्तिभाव से हाथ जोड़कर , भगवान से माफी मांग कर स्वर्ग में अपने लिए जगह पक्की कर लेते हैं। ऐसे आचरण के पीछे विचार होता है कि भगवान और मंदिरों से हमारा नाता तो है ही , सो मृत्यु के बाद हमने अपने लिए स्वर्ग में जगह बना ली और बुरे काम से ही सही , यहां भी अपना काम बन गया। लेकिन अपने स्वार्थ भरे व्यवहार से हम इस धरती पर जो नर्क बना रहे हैं , उसका क्या?
जापानी संत हाकुइन से एक बार एक सैनिक मिलने गया। सैनिक ने हाकुइन से कहा , ' महात्मन , मुझे लगता है कि स्वर्ग और नर्क केवल कल्पनाएं हैं , असल में स्वर्ग-नर्क कहीं होते नहीं। ' हाकुइन ने सैनिक से कहा , ' लगता हैतुम भिखारी हो। ' सैनिक आगबबूला हो गया। उसने कहा , ' नहीं , मैं तो सैनिक हूं। ' बोलते-बोलते उसका हाथ अपनी तलवार की मूठ पर चला गया। हाकुइन ने उससे कहा , ' अच्छा , आजकल भिखारी भी तलवार रखने लगे हैं! ' सैनिक ने तलवार म्यान से खींच ली और वह हाकुइन पर झपटा। अपने आपको बचा कर हाकुइन एक तरफ हो गए और उन्होंने कहा , ' लो नरक के द्वार खुल गए। ' उनकी बात सुन कर उस सैनिक के गुस्से पर घड़ों पानी गिर गया। यह देख कर संत ने उससे कहा , ' लो अब स्वर्ग के द्वार खुल गए। ' हाकुइन जो कहना चाहते थे , वह सैनिक जान गया- हम इस धरती पर ही अपने-अपने स्वर्ग और नर्क बना लेते हैं।
वाकई , लोग अपने कर्मों से अपने-अपने स्वर्ग और नर्क इसी पृथ्वी पर बना लेते हैं। कुछ पलों के लिए स्वर्ग-नर्क की असलियत जानने की बात को भूल कर हम इस धरती पर ही स्वर्ग बनाने के बारे में सोचें तो ?
Pic-http://www.google.com/imghp
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