एक बार आसिसि के सेंट फ्रंसिस से एक अंधी भिखारिन ने पैसे मांगे। वह अंधी थी इसलिए देख नहीं पाई थी कि वे उससे भी अधिक गरीब हैं। सेंट फ्रांसिस को उसे भीख न दे पाने का बड़ा दुख हो रहा था। मन में कुछ देने की इच्छा तो थी लेकिन जेब खाली थी। अचानक उन्हें याद आया कि उनके पास बाइबिल है। बाइबिल उन्होंने उस अंधी भिखारिन को दे दी। फिर उन्हें बाइबिल खोने का मलाल होने लगा। मन ही मन उन्होंने माफी मांगते हुए भगवान से कहा, 'भगवन्, माफ कर दो, मैंने तुम्हारे शब्द उसे दे दिए।' तभी उनके अंतर्मन से एक आवाज निकली, 'फ्रांसिस, मेरे शब्द तुम्हारे दिल में हैं, किताब तुमने दी तो क्या हुआ?' इसतरह फ्रांसिस के मन के जरिए जीजस ने उन्हें समझाया कि सत्य हमारे हृदय में बसा होता है। हम जो पढ़ते हैं, देखते हैं, सुनते हैं, लोगों से जानते हैं उससे नहीं, सत्य की अनुभूति अंतर्मन से होती है, उसकी आवाज मन से उठती है।(हिंदुस्तान टाइम्स 'इनर वायस' से साभार)
मराठी के प्रसिद्ध संत कवि तुकाराम महाराज ने अपने एक अभंग में कहा है -
'तुका म्हणे होय मनाशी संवाद।
आपुलाचि वाद आपणाशी।।'
आपुलाचि वाद आपणाशी।।'
यानी कि मन का जब अपने आप से संवाद होता है तब हमें सत्य की प्राप्ति होती है क्योंकि तब वादी-प्रतिवादी भी हम होते हैं और निर्णायक भी हम ही होते हैं। और फिर, अपने मन जैसा निष्पक्षपाती मार्गदर्शक भला कोई हो सकता है? मन हमेशा हमें सही-गलत की पहचान बताता रहता है और हम अपनी मर्जी से कभी उन चेतावनियों को तूल देते हैं तो कभी उनकी तरफ साफ नजरंदाजी करते हैं। धक्कमपेल वाली अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में स्थितियां आज इतनी विकट हो चली हैं कि किसीके पास दो घडी रुक कर अपने मन की सुनने तक की फुर्सत नहीं है।
फिल्म-टीवी जैसे दृश्य माध्यमों में आपने कई बार मन की द्विधावस्था का चित्रण आपने देखा होगा। पुरानी हिंदी फिल्मों में अक्सर अच्छे-बुरे का फैसला करते हुए नायक (या नायिका) को अपने आप से बातें करता हुआ दिखाया जाता था। उनका प्रकट मन किसी बात की पैरवी करता और अव्यक्त मन उसे समझाता, चेताता, कभी लानत-मलामत भेजता हुआ धिक्कारता। प्रकट मन नायक या नायिका का उस फिल्म वाला चरित्र होता और अप्रकट मन को मूर्त रूप में दिखाने के लिए अक्सर सफेद कपडों या आईने के प्रतिबिंब का सहारा लिया जाता। व्यक्त-अव्यक्त मन के बीच होने वाले विवाद को प्रकट करने के लिए प्रयोग में लाया गया एक दृश्य मुझे भाव की अभिव्यंजना के हिसाब से बेहतर लगता है। उसमें नायक ठिठक कर सोच रहा होता है और उसके कंधों पर सिर के एक तरफ अच्छाई का और दूसरी तरफ बुराई का प्रतीक व्यक्त करती छवियां उसे सलाह देती हुई-सी उसके मन के द्वंद्व को प्रकट करती हैं। जीवन में भी कई बार हम ऐसी स्थितियों से गुजरते हैं जहां निर्णय के लिए हमें अपने ही मन की शरण लेनी पड़ती है।
उम्र के अलग अलग पड़ावों पर हमारे मन की स्थितियां बदलती रहती हैं। मन की स्थितियों के अनुरूप हमारी वरीयताएं भी बदलती रहती हैं। इस संदर्भ में मराठी के प्रसिद्ध लेखक वि स खांडेकर की लिखी एक लघुकथा याद आ रही है। कहानी कुछ इसप्रकार है -
एक छोटी बच्ची अपना नया लहंगा पहन कर खेलती रहती है। अचानक कहीं फंस कर उसका लहंगा फट जाता है। लड़की रात भर रोती है, वह अपने आप से कहती रहती है, 'मुझे भले कुछ हो जाता, मेरा इतना प्यारा लहंगा फट गया।' दस-बारह साल बीत जाते हैं। एक बार किसी वजह से उसके चेहरे पर चोट लगती है। वह रात भर रोती रहती है और सोचती रहती है, 'मेरा यह नया लहंगा फट जाता तो कोई बात नहीं थी, लेकिन मेरा चेहरा... अब यह निशान शायद उम्र भर नहीं मिटेगा...'एक दशक और बीत जाता है। एक दिन उसके बच्चे को बुखार चढ़ जाता है बच्चे के सिरहाने रोती बैठी वह भगवान की प्रार्थना करते हुए कहती है, 'मेरा नया कोरा लहंगा फट जाता चाहे मेरे चेहरे पर बहुत सारे निशान पड़ जाते... लेकिन हे भगवान, मेरे बच्चे को कुछ नहीं होना चाहिए।' उम्र के साथ साथ स्त्री मन की बदलती स्थितियों और उसकी वरीयताओं का कितना सुंदर शब्दचित्र खींचा है उन्होंने!
इसी प्रकार उम्र के अलग अलग पडावों पर हमारी ज़रूरतें और इच्छाएं बदलती रहती हैं। उनकी पूर्तता करने के मार्गों को लेकर मन में अक्सर उलझन मची रहती है। कभी हमें अपने मन की मदद से अच्छे-बुरे की पहचान करते हुए अपने लिए राह चुननी होती है तो कभी अनगिनत ज़रूरतों में से किसे वरीयता दें इसका फैसला करना होता है। मन में घमासान मचानेवाले मुद्दे अक्सर गहरे और दूर तक असर कनेवाले होते हैं और उनसे पार पाने के लिए हमें ही अपनी मदद करनी पड़ती है।
हर कोई हमेशा नाक की सीध में शायद ही चल पाता हो। देव और दानव के मिलेजुले तत्वों से मानव मन बना है। हमारा मन देवत्व और दानवत्व के विचारों की मानो क्रीडास्थली है। अपनी सद्विवेक बुद्धि के सहारे देवत्व का फैसला कर वही पलडा भारी रखने के लिए हमें हमेशा अपने आपसे संवाद बनाए रखना चाहिए।
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