-संध्या पेडणेकर
हमारा शरीर एक बेहतरीन मशीन है। लेकिन कुछेक मामलों में उसमें सुधार की भी गुंजाइश है। न, भगवान की कृती में खोट बतानेवाले समीक्षक की तरह इंसान के सीने पर खिड़की होने की बात मैं नहीं करने जा रही (मैं जानती हूं कि उस समीक्षक को स्वर्ग से जमीन पर धकेला गया था!)। अव्वल तो मुझे दिल से नहीं आंखों से शिकायत है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारे शरीर में आंखें कुछ ग़लत जगह पर फिट की गई हैं? असल में मुझे कई बार लगता है कि सिर के ऊपर एंटीना लगा कर उसके सिरे पर आंखें फिट की गई होतीं तो कितना अच्छा होता! फिर हम अपने आपको फोर-डी में देख पाते। अपने आप को चारों ओर से निहारने के लिए आंखों की वर्तमान पोजिशन कन्विनियंट नहीं है।
आप चाहे जितनी कोशिश कर लीजिए, अपने पैर, छाती, पेट का केवल अगला हिस्सा ही हम देख सकते हैं। मेरे सिर के पीछे वाले हिस्से के बाल सफेद हो गए हैं यह मुझे मेरी उस पड़ोसन ने बताया तो मैं शरम के मारे पानी पानी हो गई थी। आंखें अगर सही जगह फिट की गई होतीं तो समय रहते बालों पर कालिख पोत कर उन्हें मैं अपनी जो उम्र बताती हूं उनके माफिक न बना लेती? अव्वल तो मुझे लगता है कि आंखों को वे जहां हैं वहां फिट करने में उस परमपिता की गहरी साजिश है, मसलन कि, हम केवल अपने आप को देखने में उलझ कर न रह जाएं, जरा औरों पर भी ग़ौर करें यही शायद वह चाहता हो। (कुछ लोग भगवान की इस छुपी इच्छा का कितना मान रखते हैं!) जो हो, मुझे आंखों की फिटिंग ग़लत जगह होने के बारे में लगभग यकीन हो चला है। भला यह भी कोई बात हुई कि, अपने आपको पूरी तरह से देखने के लिए हमें आईने का सहारा लेना पड़े?
वैसे, आईना भी एक समय में हमें अपने रूप का बस एक ही पहलु दिखाता है। एक साथ आगे-पीछे-दाएं-बाएं देखने के लिए हमें ठीक एंगल में लगे एक से अधिक आईनों की मदद लेनी पड़ती है। मजे की बात तो यह है कि इन अलग अलग कोणों में फिट किए आइनों की मदद से हम अपना जो रूप देखते हैं वह संपूर्ण तो होता है लेकिन सत्य नहीं। वह टुकड़ों में बंटा एक प्रतिबिंब भर होता है। उसका हर टुकड़ा हमें अपना जो रूप दिखाता है वह एक अलग सत्य बयान करता है। थोड़ी गहरी बात कहूं तो इन आइनों के टुकड़ों से प्राप्त खंडित सत्य को हमारी बुद्धि एक संगति देकर अपना एक स्वीकार्य सत्य प्रतिपादित करती है जिसे अंततोगत्वा हम अपने रूप के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं। हालांकि, थोड़ा सोचने पर मुझे लगता है कि इसमें आईने का उतना दोष नहीं है जितना कि हमारी आंखों का है। आंखें ही जब सही जगह पर फिट नहीं की गई हों तो फिर.....
अलबत्ते दूसरों की आंखें हमें पूर्ण रूप से देख सकती हैं। हम भी चाहें तो दूसरों को देख सकते हैं। यानी कि गोया आंखों की खासियत यह कि वे रूप को समग्रता में देख तो सकती हैं - लेकिन केवल औरों का! ऐसी रचना के पीछे विधाता की क्या योजना होगी भला? :) अपने तरीके से मैं विधाता की मंशा का प्रतिपादन इतना भर कर सकती हूं कि हम केवल अपने सिंगल डाइमेंशनवाले सत्य तक सीमित न रहें, औरों के मल्टी डाइमेंशनल, साफ साफ और चौतरफा दिखाई देनेवाले सत्य पर भी गौर करें!
सवाल यह है कि, औरों की आंखों से ही अपने आप को समग्र रूप से जब हम देख पाते हैं तो क्या हमें उनके द्वारा हमारे बारे में प्रतिपादित सत्य को ही अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए? याकि, अपनी बुद्धि से प्रतिपादित किए जानेवाले सत्य को अंतिम मान लेना चाहिए? अगर हां, तो फिर अपनी सिंगल डाइमेंशन वाली नज़र का क्या? वह हमें एक ही पहलु पर आधारित तत्व अंतिम सत्य के रूप में स्वीकारने पर मजबूर करेगा। हमारा सत्य तब क्या व्यक्तिसापेक्ष बन कर नहीं रहेगा?
हं, सत्य व्यक्तिसापेक्ष नहीं होता लेकिन मानना पड़ेगा कि सत्य एकमेव भी नहीं होता। हाथी के रूप का जो सत्य चार अंधों ने प्रतिपादित किया था वह झूठ नहीं था, व्यक्तिगत स्तर पर वह सही था लेकिन हाथी का असली रूप जाननेवाले आंखोंवाले का हाथी के बारे में जो सच होगा वह इन चारों सत्यों से बिल्कुल अलग होगा। अंधों के सत्य आंखवाले के सत्य का एक पहलु भर थे। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि आंखों वाले हों या अंधे, आईने में देख कर तय किया गया हो या खुली आंखों से देख कर तय किया गया हो - सत्य 'हरी अनंत, हरि कथा अनंत' की तरह एकमेव न होकर अनेकानेक होता है। हर व्यक्ति अपने सत्य का दूसरे के सत्य के साथ तालमेल बिठाते हुए आराम से गुजर बसर कर सकता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हमारा शारीरी अस्तित्व दुनिया में औरों के साथ अपना तालमेल बिठाते हुए जीवन का आनंद लेता है।
वैसे आंखों से निकली बात दिल की राह पकड़ लेती है लेकिन यहां आंखों से निकली बात को अकल की राह पर मोडते हुए एक बात मैं कहना चाहती हूं कि, औरों के सत्य को हम जब मान रहे हैं तो लगे हाथ हमें यह भी मान ही लेना चाहिए कि किसी एक का सत्य औरों के सत्य से ऊंचा नहीं होता। और कि, हर कोई अपने सत्य को प्राप्त कर सकता है। बस आंखों को बंद कर लीजिए! आंखें तथ्यों को जोड़ तो सकती हैं लेकिन सत्य जानने के लिए हमें आंखें मूंदनी पड़ती हैं। क्योंकि, बाहरी तत्वों से प्राप्त सत्य सापेक्ष होता है। जिस सत्य के सहारे हमें सही-ग़लत की पहचान हो सकती है, जो सत्य हमें उबार ले जा सकता है उसकी प्राप्ति हमें बाहर नहीं भीतर ही हो सकती है -
"अंतर के पट खोल री तोको पीहू मिलेंगे...."
सो, हमारी आंखें चाहे किसी जगह फिट की गई हों, वे केवल शरीर रूपी महल के दरवाजे हैं। राह पर खड़े होकर हम केवल घर का दरवाजा ही देख सकते हैं। घर में प्रवेश करना हो तो राह से, भीड़ से पीठ मोडनी पड़ती है, किवाड पीछे भेडने पड़ते हैं। घर की हर बात का तभी हमें पता चल सकता है। भव रूपी राह को ताकती आंखों को पलकों से ढ़ांक कर हम जब नजर को अंतर्मन की ओर मोड लेते हैं तब हम सत्य का रुख कर लेते हैं। ध्यान से कोशिश कर सत्य पा भी सकते हैं। लेकिन, आंखें जब खुल जाती हैं तब? बाहरी सत्य के साथ अंतर्मन के सत्य का तालमेल कैसे बिठाएं? ज्ञानियों ने कहा है कि अंतर्मन में झांक कर जिस सत्य की हमें प्राप्ति होती है वह हमें अपने अस्तित्व के प्रति जागरुक करता है। यह सजगता हमें कमल के पत्ते सा - पानी में रह कर भी पानी से अछूता - जीवन जीने का ज्ञान देती है। सतह पर सौंदर्य और आनंद की सृष्टि करनेवाला कमल और अंदर जीवन देनेवाली ऊर्जा से अलिप्त अस्तित्व।
आईने का भले न हो, जीवन का सत्य शायद यही है।
हमारा शरीर एक बेहतरीन मशीन है। लेकिन कुछेक मामलों में उसमें सुधार की भी गुंजाइश है। न, भगवान की कृती में खोट बतानेवाले समीक्षक की तरह इंसान के सीने पर खिड़की होने की बात मैं नहीं करने जा रही (मैं जानती हूं कि उस समीक्षक को स्वर्ग से जमीन पर धकेला गया था!)। अव्वल तो मुझे दिल से नहीं आंखों से शिकायत है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारे शरीर में आंखें कुछ ग़लत जगह पर फिट की गई हैं? असल में मुझे कई बार लगता है कि सिर के ऊपर एंटीना लगा कर उसके सिरे पर आंखें फिट की गई होतीं तो कितना अच्छा होता! फिर हम अपने आपको फोर-डी में देख पाते। अपने आप को चारों ओर से निहारने के लिए आंखों की वर्तमान पोजिशन कन्विनियंट नहीं है।
आप चाहे जितनी कोशिश कर लीजिए, अपने पैर, छाती, पेट का केवल अगला हिस्सा ही हम देख सकते हैं। मेरे सिर के पीछे वाले हिस्से के बाल सफेद हो गए हैं यह मुझे मेरी उस पड़ोसन ने बताया तो मैं शरम के मारे पानी पानी हो गई थी। आंखें अगर सही जगह फिट की गई होतीं तो समय रहते बालों पर कालिख पोत कर उन्हें मैं अपनी जो उम्र बताती हूं उनके माफिक न बना लेती? अव्वल तो मुझे लगता है कि आंखों को वे जहां हैं वहां फिट करने में उस परमपिता की गहरी साजिश है, मसलन कि, हम केवल अपने आप को देखने में उलझ कर न रह जाएं, जरा औरों पर भी ग़ौर करें यही शायद वह चाहता हो। (कुछ लोग भगवान की इस छुपी इच्छा का कितना मान रखते हैं!) जो हो, मुझे आंखों की फिटिंग ग़लत जगह होने के बारे में लगभग यकीन हो चला है। भला यह भी कोई बात हुई कि, अपने आपको पूरी तरह से देखने के लिए हमें आईने का सहारा लेना पड़े?
वैसे, आईना भी एक समय में हमें अपने रूप का बस एक ही पहलु दिखाता है। एक साथ आगे-पीछे-दाएं-बाएं देखने के लिए हमें ठीक एंगल में लगे एक से अधिक आईनों की मदद लेनी पड़ती है। मजे की बात तो यह है कि इन अलग अलग कोणों में फिट किए आइनों की मदद से हम अपना जो रूप देखते हैं वह संपूर्ण तो होता है लेकिन सत्य नहीं। वह टुकड़ों में बंटा एक प्रतिबिंब भर होता है। उसका हर टुकड़ा हमें अपना जो रूप दिखाता है वह एक अलग सत्य बयान करता है। थोड़ी गहरी बात कहूं तो इन आइनों के टुकड़ों से प्राप्त खंडित सत्य को हमारी बुद्धि एक संगति देकर अपना एक स्वीकार्य सत्य प्रतिपादित करती है जिसे अंततोगत्वा हम अपने रूप के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं। हालांकि, थोड़ा सोचने पर मुझे लगता है कि इसमें आईने का उतना दोष नहीं है जितना कि हमारी आंखों का है। आंखें ही जब सही जगह पर फिट नहीं की गई हों तो फिर.....
अलबत्ते दूसरों की आंखें हमें पूर्ण रूप से देख सकती हैं। हम भी चाहें तो दूसरों को देख सकते हैं। यानी कि गोया आंखों की खासियत यह कि वे रूप को समग्रता में देख तो सकती हैं - लेकिन केवल औरों का! ऐसी रचना के पीछे विधाता की क्या योजना होगी भला? :) अपने तरीके से मैं विधाता की मंशा का प्रतिपादन इतना भर कर सकती हूं कि हम केवल अपने सिंगल डाइमेंशनवाले सत्य तक सीमित न रहें, औरों के मल्टी डाइमेंशनल, साफ साफ और चौतरफा दिखाई देनेवाले सत्य पर भी गौर करें!
सवाल यह है कि, औरों की आंखों से ही अपने आप को समग्र रूप से जब हम देख पाते हैं तो क्या हमें उनके द्वारा हमारे बारे में प्रतिपादित सत्य को ही अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए? याकि, अपनी बुद्धि से प्रतिपादित किए जानेवाले सत्य को अंतिम मान लेना चाहिए? अगर हां, तो फिर अपनी सिंगल डाइमेंशन वाली नज़र का क्या? वह हमें एक ही पहलु पर आधारित तत्व अंतिम सत्य के रूप में स्वीकारने पर मजबूर करेगा। हमारा सत्य तब क्या व्यक्तिसापेक्ष बन कर नहीं रहेगा?
हं, सत्य व्यक्तिसापेक्ष नहीं होता लेकिन मानना पड़ेगा कि सत्य एकमेव भी नहीं होता। हाथी के रूप का जो सत्य चार अंधों ने प्रतिपादित किया था वह झूठ नहीं था, व्यक्तिगत स्तर पर वह सही था लेकिन हाथी का असली रूप जाननेवाले आंखोंवाले का हाथी के बारे में जो सच होगा वह इन चारों सत्यों से बिल्कुल अलग होगा। अंधों के सत्य आंखवाले के सत्य का एक पहलु भर थे। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि आंखों वाले हों या अंधे, आईने में देख कर तय किया गया हो या खुली आंखों से देख कर तय किया गया हो - सत्य 'हरी अनंत, हरि कथा अनंत' की तरह एकमेव न होकर अनेकानेक होता है। हर व्यक्ति अपने सत्य का दूसरे के सत्य के साथ तालमेल बिठाते हुए आराम से गुजर बसर कर सकता है। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हमारा शारीरी अस्तित्व दुनिया में औरों के साथ अपना तालमेल बिठाते हुए जीवन का आनंद लेता है।
वैसे आंखों से निकली बात दिल की राह पकड़ लेती है लेकिन यहां आंखों से निकली बात को अकल की राह पर मोडते हुए एक बात मैं कहना चाहती हूं कि, औरों के सत्य को हम जब मान रहे हैं तो लगे हाथ हमें यह भी मान ही लेना चाहिए कि किसी एक का सत्य औरों के सत्य से ऊंचा नहीं होता। और कि, हर कोई अपने सत्य को प्राप्त कर सकता है। बस आंखों को बंद कर लीजिए! आंखें तथ्यों को जोड़ तो सकती हैं लेकिन सत्य जानने के लिए हमें आंखें मूंदनी पड़ती हैं। क्योंकि, बाहरी तत्वों से प्राप्त सत्य सापेक्ष होता है। जिस सत्य के सहारे हमें सही-ग़लत की पहचान हो सकती है, जो सत्य हमें उबार ले जा सकता है उसकी प्राप्ति हमें बाहर नहीं भीतर ही हो सकती है -
"अंतर के पट खोल री तोको पीहू मिलेंगे...."
सो, हमारी आंखें चाहे किसी जगह फिट की गई हों, वे केवल शरीर रूपी महल के दरवाजे हैं। राह पर खड़े होकर हम केवल घर का दरवाजा ही देख सकते हैं। घर में प्रवेश करना हो तो राह से, भीड़ से पीठ मोडनी पड़ती है, किवाड पीछे भेडने पड़ते हैं। घर की हर बात का तभी हमें पता चल सकता है। भव रूपी राह को ताकती आंखों को पलकों से ढ़ांक कर हम जब नजर को अंतर्मन की ओर मोड लेते हैं तब हम सत्य का रुख कर लेते हैं। ध्यान से कोशिश कर सत्य पा भी सकते हैं। लेकिन, आंखें जब खुल जाती हैं तब? बाहरी सत्य के साथ अंतर्मन के सत्य का तालमेल कैसे बिठाएं? ज्ञानियों ने कहा है कि अंतर्मन में झांक कर जिस सत्य की हमें प्राप्ति होती है वह हमें अपने अस्तित्व के प्रति जागरुक करता है। यह सजगता हमें कमल के पत्ते सा - पानी में रह कर भी पानी से अछूता - जीवन जीने का ज्ञान देती है। सतह पर सौंदर्य और आनंद की सृष्टि करनेवाला कमल और अंदर जीवन देनेवाली ऊर्जा से अलिप्त अस्तित्व।
आईने का भले न हो, जीवन का सत्य शायद यही है।