महाराष्ट्र की
समृद्ध खानपान परंपरा
-संध्या पेडणेकर
भारत के अन्य
राज्यों की खानपान परंपराओं की तरह ही महाराष्ट्र की भी श्रेष्ठ खानपान परंपरा है।
यहां के वडा-पाव, उसळ-पाव को दुनिया भर में पसंद किया जाता है। इसी प्रकार झुणका-भाकर,
वरण-भात, पुरणपोळी, आम्रखंड, श्रीखंड, आमरस आदि व्यंजन भी लोगों को पसंद आते हैं।
मोटे तौर पर महाराष्ट्रीय व्यंजनों को कोकणी, पुणेरी, मराठवाडी, कोल्हापुरी और वऱ्हाडी
इन पांच हिस्सों में बांटा जा सकता है। ये पांच विभाग भौगोलिक स्थिति के आधार से
बनाए गए हैं।
महाराष्ट्र में करीब
65 प्रतिशत लोग खेती से जुड़े हैं और गन्ना, बाजरा, अलसी, ज्वार, मुंग, मोठ, तिल,
मुंगफली, चावल, उरद, गेहूं, मक्कई, मोरधन, राला (मोरधन जैसा काले, पीले और सफेद
रंग का चावल), श्यामक, अरहर, चना, मसूर, चौलाई आदि अनाज की खेती होती है। फलों में
चीकू, केला, आम, संतरा, अंगूर आदि फलों की खेती होती है। इन्हीं अलग अलग व्यंजन पूरे
महाराष्ट्र में प्रदेशविशेष के आधार से बनते हैं।
कोंकणी व्यंजन -
इमली के घोलवाले
पोहे - चावल से बनाए
जानेवाले पोहे या चिडवा के विभिन्न व्यंजन महाराष्ट्र में लोकप्रिय हैं। पोहे को
हम देसी फास्टफूड की श्रेणी में रख सकते हैं। चावल के सभी पोषक तत्व इसमें होते हैं। सूखे पोहे के, भिगाए पोहे के, तले
पोहे के कई तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं। इमली के घोल के साथ बनाए
जानेवाले ‘कोळाचे पोहे’ भी बहुत स्वादिष्ट होते हैं। इसके लिए पोहे को
नारियल के दूध में भिगोते हैं। लगभग पोहे की बराबर मात्रा में कसा हुआ कच्चा
नारियल मिलाते हैं। फिर इसमें कसा हुआ गुड़ और इमली का घोल मिलाते हैं। ऊपर से
घी-जीरे का तड़का लगाते हैं। लोजी, तैयार हैं, इमली के घोलवाले पोहे।
कानुले/घावन और घाटले – 1. घाटले - नारियल के दूध में गुड, पिसी इलायची मिला कर
घाटले बनाया जाता है जिसे गुळवणी भी कहते हैं। 2. (क) कानुले - यानी पुरण
भर कर भाप पर बनी मोटी रोटी। गेहूं के आटे और सूजी को साथ में गूंथ कर या
मैदे को गूंथ कर छोटी छोटी लोइयां बना ली जाती हैं जिन्हें छोटा बेल कर आधे हिस्से
में पूरण भरते हैं, फिर एक बार यही कृति दोहराते हैं जिससे कि पूरण भरी तिकोनी लोई
तैयार होती है। इसे थोडा फैला कर भांप में पका लेते हैं। इसके लिए बड़े से भगौने
में चौथाई से थोड़ा कम हिस्सा पानी डाल कर पानी को उबालते हैं और उसमें थोडा घी या तेल डालते हैं।
भगौने के ऊपर छाननी रखते हैं या कप़ा बांधते हैं और इसमें कानुलों को ढंक कर पकाते
हैं। (ख) पुरण - चने की दाल को उबाल कर गला लेते हैं। पानी निथार कर
पकी दाल में गुड मिला कर गाढा होने तक
भूनते हैं। ठंडा होने पर इसे महीन पीस लेते हैं। इसमें सुगंध के लिए सोंठ और जायफल
मिलाते हैं। 3. घावन - चावल के आटे से बने जालीदार डोसे को घावन कहा जाता
है।
लाही के लड्डू –भडभूंजे द्वारा चावल, ज्वार, बाजरा, मक्कई, रागी,
गेहूं आदि अनाजों को भून कर फुलाते हैं तब उन्हें लाही कहते हैं। अंग्रेजी में इसे
पॉप कहते हैं और हम सब पॉप कॉर्न से भलीभांती परिचित हैं। अनाज से बनी लाहियों को
पीस कर, गीला करने भर के लिए दूध मिला कर, गुड़, पिसी इलायची और मेवे मिला कर
लड्डूं बांध दिए जाते हैं। स्वादिष्ट होने के साथ साथ ये लड्डू पोषक और सुपाच्य
होते हैं।
ईंदर या पेवसी – ब्याई हुई गाय या भैंस के पहले सात दिनों के दूध
से बननेवाली मिठाई। बनाने की विधि – ब्याई हुई गाय या भैंस का पहले सात दिनों का
गाढ़ा दूध, उसका एक चौथाई सादा दूध, कसा हुआ गुड और पिसी इलायची। सभी चीजों को साथ
मिला कर गुड को दूध में अच्छी तरह घोल लें। घोल को सीटी बिना लगाए कुकर में 15-20
मिनट भंपा लें। जमने के लिए कुकर से निकाल कर हवादार जगह में रखें। हल्का ठंडा
होने पर फ्रीज में रख कर अच्छी तरह ठंडा करें। छुरी से काट कर टुकडे बना कर
परोसें। गरम तासीर वाली यह मिठाई ठंड के दिनों में खाना सेहत के लिए फायदेमंद रहता
है।
तवसाळे या धोडस – हरी ककडी, सूजी, कच्चे नारियल का कसा हुआ खोपरा,
बादाम-काजू-पिस्ते-किशमिश आदि सूखे मेवे, गुड आदि से यह केक बनता है। ककडी को कस
कर निचोड लें। उसमें सूजी, सूखे मेवे, खोपरा, गुड़ आदि मिला कर पिलपिला गूंथ लें।
केक के बर्तन में 15-20 मिनट तक पकाएं। जालीदार और खूब फूला हुआ चाहें तो घोल में
थोड़ा बेकिंग पाऊडर मिला लें। केकपॉट से निकालने के बाद ठंडा करें और टुकडे काट कर
परोसें ।
भाजणी का आटा – भून कर पिसे अनाज और दालों के आटे को भाजणी का आटा कहते हैं।
विभिन्न व्यंजनों के लिए अलग अलग अनुपा में अनाज और दालें मिला कर भून कर पिसाते
हैं। इसप्रकार चकली की भाजणी अलग होती है, धिरडे की भाजणी अलग। धिरडे – उपलब्ध
सभी तरह के अनाज और दालों को मिला कर हल्का भूंज कर ठंडा कर लेते हैं। साथ में
धनिया दाना, जीरा, हींग, सूखी लाल मिर्चें, मेथीदाना भी हल्का भून लेते हैं। सभी
चीजों को दरदरा पीस कर रखते हैं। यह आटा हवाबंद कनस्तर में दो-तीन महीनों तक अच्छा
बना रहता है। ज़रूरत के अनुसार भाजणी का आटा लेकर उसमें बारीक कटी प्याज, हरी
मिर्च, हरा धनिया मिलाएं, पानी मिला कर पकौडियों जितना ढीला आटा बना लें और घी लगे
तवे पर चम्मच से फैला कर दोनों तरफ से अच्छी तरह पका लें। मोटा धिरडा अच्छी तरह
पकाने के लिए उसमें जगह जगह छेद बनाए जाते हैं और खूब घी या तेल दिया जाता है।
रोटी के आटे की तरह गूंथ कर, बेल कर भी बनाया जाता है लेकिन भूनने का तरीका वही
होता है। घर के बने मक्खन के साथ परोसे गए धिरडे का स्वाद आंख, नाक, जीभ, पेट और
दिल को तृप्ति का अहसास देता है। भारी व्यंजन होने के कारण इसे छोटे छोटे कौर में
खूब चबा कर खाना चाहिए।
पुणेरी व्यंजन -
पुणे को महाराष्ट्र
की सांस्कृतिक और अब शैक्षिक राजधानी कहा जा सकता है। यहां का खानपान कोकण की तरह
ही लगभग होता है। यहां के खास व्यंजन हैं वरण-भात-तूप-मेतकूट (पीली दाल-चावल),
उसळ-पाव, अळूवडी, बाकरवडी, कटाची आमटी, झुणका-भाकर और मिठाई में श्रीखंड, पुरणपोळी,
आम्रखंड, शिरा(हलवा)-पुरी, सुधारस-पुरी आदि।
वरण-भात – लगभग हर रोज के खाने में बननेवाला वरण-भात बनाने
का तरीका एकदम आसान है। अरहर या मुंग की दाल को अलग बर्तन में पकाना है। उबाल आने
पर उसमें हींग और हल्दी मिलानी है। दाल अच्छी तरह से गल जाए तो आंच से हटा कर चावल
के साथ परोसते हैं। दाल-चावल पर घी डाला जाता है और साथ में मेतकूट होता है– जो विभिन्न
दालों और मसालों को मिला कर खास तरह से बनी सूखी चटनी होती है। वरण-भात की
तरह ही मुंग के दाल की खिचडी घी-दही-मेतकूट और पापड के साथ भी खाया जाता है। इन्हें
खास व्यंजन तो नहीं कहा जा सकता लेकिन घर की याद आने पर अक्सर विदेशों में पुणे के
लोगों को इसकी याद ज़रूर आती है जिस कारण यह विशिष्ट व्यंजन बन जाता है।
उसळ-पाव – साबूत मुंग, मोठ, चौलाई, मटर, अरहर आदि को
अंकुरित कर बनाई गई रस्सेदार सब्जी को उसळ कहते हैं जो रोटी, चावल या पाव के साथ खाई
जाती है। इसमें सभी तरह के गरम मसाले होते हैं और अवश्यंभावी रूप से यह बेहद तेज
स्वाद वाली होती है। जो एक बार उसळ खा ले वह आमतौर पर कभी उसका स्वाद भूलता नहीं।
पुणे की तरह ही कोल्हापुर की उसळ भी महाराष्ट्र में अलग से मशहूर है।
अळूवडी – अरवी के पत्तों से बननेवाला स्वादिष्ट व्यंजन है अळूवडी।
डंठल हटा कर अरवी के पत्तों को अच्छी तरह से धो-सुखा लेते हैं। बेसन में इमली का
गूदा, मिर्च, हल्दी, पिसा हुआ जीरा-धनिया, नमक मिला कर भजिए से हल्का गाढ़ा घोल
बना लेते हैं। अरवी के पत्तों पर उलटी तरफ इस घोल की पतली परत फैला कर तीन-चार
पत्ते एक के ऊपर एक रख कर लपेट लेते हैं। फिर कुकर में बिना वजन दिए इन्हें पांचदस
मिनट तक भाप देकर ठंडा कर चकतियों में काट लेते हैं। फिर तल कर ऊपर से भुना तिल
बुरक कर या तो खाने में साइड डिश की तरह सूखा खाते हैं, चटनी-सॉस के साथ खाते हैं
या मसाले का झोल बना कर उसमें इन्हें डाल कर अळूवडी की रस्सेदार सब्जी बना लेते
हैं।
कटाची आमटी- महाराष्ट्र की पुरणपोळी सबदूर मशहूर है। इसके
लिए चने की दाल उबालने के बाद जब निथारते हैं तब बचे हुए पानी से यह सांभरनुमा दाल
बनती है जिसे कटाची आमटी कहते हैं। इसमें मेथी-हींग, प्याज-टमाटर का तड़का लगता है
और गरम मसाला पड़ता है। इसे पुरण पोळी के साथ भी खाते हैं या जायका बढ़ाने के लिए
खाना खाते हुए बीच बीच में इसकी चुस्कियां ली जाती हैं बिल्कुल सोल कढी की तरह।
सोलकढी – महाराष्ट्र की ही खास उपज अमसूल या कोकम से
सोलकढी बनती है। इमली जैसा ही फल होता है अमसूल का लेकिन आकार में वह टमाटर की तरह
और दिखने में आलूबुखारे की तरह होता है। इन्हें सुखा कर रखा जाता है। या इनका अर्क
उतारते हैं जिसे आगळ कहते हैं। यह पित्तशमन की खास दवा के तौर पर जाना जाता है। कोकम
से सोलकढी और शरबत आदि बनते हैं। सोलकढी बनाने को लिए कच्चे नारियल को कस-निचोड कर
दूध निकाला जाता है। पसंद के अनुसार उसे गाढा-पतला बनाते हैं। उसमें कोकम का आगळ,
नमक, हरी मिर्च मिलाते हैं। गुलाबी रंग का यह पेय पदार्थ बेहद स्वादिष्ट, जायका
बढ़ानेवाला और ठंडक पहुंचानेवाला होता है।
श्रीखंड – दही को कपडछान कर लेते हैं। गाढे दही में चीनी,
पिसी इलायची, केशर की सुगंध मिलाते हैं। साथ में सूखे मेवे डाल कर श्रीखंड बनाया
जाता है जो पूडी या रोटी के साथ खाते हैं। आम्रखंड – दही में आम का गूदा
मिला कर जब यह पकवान बनता है तब उसे आम्रखंड कहते हैं।
सुधारस – चीनी के घोल को उबाल कर उसमें नींबू निचोड देते
हैं जिससे हल्के गुलाबी रंग का रस बनता है। इसमें केले की चकतियां, पिसी इलायची और
केशर मिलाते हैं। पेशवा के जमाने में बननेवाले व्यंजनों में सुधारस का भी जिक्र
मिलता है।
मराठवाडी व्यंजन –
मराठवाडा के
व्यंजनों में खास कर प्रसिद्ध हैं पानगे, धपाटे, येसर। मेथांबा भी यहां बड़े प्यार
से खाया जात है।
मेथांबा – कैरी से बननेवाला यह व्यंजन लोंजी की तरह होता
है। कैरी की बडे आकार की फांकें काट लेते हैं। अन्य चीजों के साथ इसके तड़के में मेथीदाने
डालते हैं। हींग, मेथीदाने, सरसों के तड़के में पानी मिला कर कैरी को गलाने के बाद
उसमें गुड डाला जाता है जिससे चाशनी गाढी बनती है और स्वाद खट्टा-मीठा बनता है। चावल
या रोटी के साथ इसे खाया जाता है।
पानगा – पानगा एक तरह का फुलका ही कह सकते हैं। आटे में
घी या तेल का मोयन देकर हींग, जीरा, नमक मिला कर गूंथ लेते हैं। फिर इसकी छोटी
छोटी लोइयां बना कर हाथ पर ही पूड़ी जितनी फैला कर पहले तवे पर और फिर सीधे आंच पर
पकाते हैं। मेथांबा के साथ भी पानगे अच्छे लगते हैं।
खिचडी-येसर – येसर खास मराठवाडा की देन है। इसे विभिन्न दालों
के आटे का बेसन भी कह सकते हैं हालांकि यह अपेक्षाकृत पतला होता है। इसके लिए आटा
पिसा कर रखा जाता है। एक बार पिसा आटा दो-तीन महीनों तक इस्तेमाल किया जा सकता है
बशर्ते कि ठीक से ढंक कर हवाबंद तरीके से रखा जाए।
येसर का अटा बनाने
की विधि – गेहूं, चना दाल,
ज्वार, बाजरा, धनियादाना, सूखा खोपरा, जीरा, काली मिर्च, लौंग, बडी इलायची,
दालचीनी और पत्थरफूल को अलग अलग भून कर साथ पिसाकर रखते हैं।
खिचडी के साथ येसर खाया
जाता है।
कोल्हापुरी व्यंजन –
कोल्हापुर का तांबडा
(लाल) और पांढरा (सफेद) रस्सा मशहूर है। हालांकि ये सामिष भोजन के प्रकार हैं।
निरामिश भोजन में
यहां की उसळ, मिसळ और चिवडा बेहद लोकप्रिय हैं। यहां ज्यादातर अंकुरित मोठ की तेज-मसालेदार
उसळ बनती है जो पाव के साथ खाई जाती है। मिसळ में तुरंत खानेलायक रसोई के अन्य सभी
व्यंजनों को मिला कर उनके ऊपर उसळ का रस्सा डाल कर खाते हैं। साथ में स्वाद बढ़ाने
के लिए होती है हरी मिर्च। जब तक नाक-आंख से पानी ना बहाए तब तक कोल्हापुर की उसळ या
मिसळ को अच्छा नहीं माना जाता।
चिवडा और भडंग – पोहे और कुरमुरों में मसाले, मुंगफलियां, भुने
चने की दाल, सूखे खोपरे के टुकडे और कढीपत्ता के पत्ते मिला कर बननेवाले चिवडा और
भडंग की सुगंध भी मन मोह लेती है।
खानदेशी व्यंजन –
खानदेशी व्यंजनों
में मशहूर हैं कळण , सफेद बैंगनका भर्ता, मूंग के एडणे, मेथी का खुडा, भेंडके
और शेवभाजी।
कळण -
भेंडके – जवार में थोड़े मूंग मिला कर आटा पिसाते हैं। इस
आटे की बनी रोटी को भेंडके कहा जाता है। इसके साथ सफेद बैंगन का भर्ता खाया जाता
है। आंच पर भुने बैंगन के गूदे में हरी मिर्च, लहसन, हरी प्याज के पत्ते और बहुत
सारा धनिया पत्ता मिला कर भर्ता बनता है।
मुंग के एडणे - कोंकण में बननेवाले धिरडे की तरह ही एडणे भी बनता
है। मुंग दाल को भिगा कर दरदरा पीस लेते हैं। उसमें पिसा हुआ धनिया-जीरा मिलाते
हैं। घोल बना कर तेल या घी के साथ तवे पर चीले बनाते हैं।
मेथी का खुडा – मुंग के एडणे मेथी के खुडा के साथ खाया जाता है।
मेथी के कोंपलों को लहसन, मिर्च के साथ मसल कर उसमें तेल, नमक मिलाते हैं।
शेवभाजी – नाम से ही स्पष्ट है कि यह शेव से बननेवाल व्यंजन
है। अलग अलग तरह की शेव से अलग अलग तरह की सब्जियां बनती है। उसळ-पाव की तरह ही
शेवभाजी भी बेहद चपटी सब्जी है जो केवल याद भर से जीभ के झरनों के सोते जगा दे।
खास खानदेसी काले मसाले के साथ बनी झोल वाली शेवभाजी पढ़-सुन कर नहीं बल्कि खाकर
ही जानी जानी चाहिए। शेवभाजी की एक और खासियत है कि आप चाहें तो इसे नाशअते की तरह
भी खा सकते हैं। वैसे इसे रोटी या पाव के साथ खाया जाता है।
वऱ्हाडी व्यंजन – भजी-भात, गोळा-भात, भरवां ढेमसे (टिंडे), इमली का
सार, खांडोळी, पातोडी, सरगुंडे आदि वऱ्हाड प्रांत के महत्वपूर्ण व्यंजन हैं। इनके
अलावा पुडाची सांबारवडी, वरण, बेसन, मुंगवड्या, चुनवड्या करोडा, तिल की सब्जी आदि
रोजमर्रा के व्यंजनों में गिनाए जा सकते हैं।
पातोडी – भुने प्याज, भुने खोपरे, खसखस, मुंगफली. कालीमिर्च,
लौंग, तेजपत्ता भून कर थोडी चना दाल और थोडे चावल के साथ पीस लेते हैं और बेसन की
तरह बनाते हैं। तैयार आटे का पानी में मिला कर घोल बनाते हैं। घोल में अजवाइन, पिसी
मिर्च और हल्दी, नमक मिलाते हैं। इसे सरसों, लहसन, जीरे का तडका लगाते हैं।
सरगुंडे - भुट्टे के डंडों पर गेहूं की सेवइयां लपेट कर
सुखा ली जाती हैं। इन सरगुंडों को भाप में पका कर आम रस के साथ परोसा जाता है।
कोरोडा – दही में बेसन,कसी ककडी मिलाते हैं। घोल बना लेते
हैं। इसमें हींग, हरी मिर्च, कढीपत्ते का तड़का लगा कर बेसन बना लेते हैं। आमतौर
पर बननेवाली जवार की रोटी के साथ इसे खाया जाता है।
महाराष्ट्र के अन्य
हिस्सों में जहां चने की दाल का पुरण बनता है वहां खानदेश में अरहर की दाल का पुरण
बनता है।
स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक होने के बावजूद मैगी जैसी चीजों को भारत जैसे समृद्ध खाद्यसंस्कृति वाले
देश में इतनी व्यापक सार्वजनिक स्वीकृति मिलने की केवल एक ही वजह है और वह है उसे
बनाने की सहूलियत। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण वजह है कि दो मिनट में तैयार होनेवाले
व्यंजन खानेवाले के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड कर सकते हैं, या खानपान और स्वास्थ्य का करीबी संबंध होता है
इस बात का अहसास कई लोगों को नहीं होता।
सुंदर दिखाई
देनेवाले, स्वादिष्ट, मनभावन महकवाले व्यंजन बनाने के लिए कम समय और कम मेहनत लगे
यह खयाल बदलते समय की मांग है जिसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। संयुक्त परिवारों
में कई औरतें अपना पूरा समय देकर जो और जैसे व्यंजन बना लेती थीं, घर के हर सदस्य
के स्वास्थ्य और पसंद का जैसा खयाल रखती थीं वैसे आज के एकल और दुगनी आमदनी वाले
परिवार में संभव नहीं। आज लोगों के पास पैसा है, एकदूसरे के प्रति अपनत्व भी है
लेकिन समय की बेहद कमी है। इसलिए, सहूलियत से बनाए जा सकनेवाले, स्वास्थ्यवर्धक और
अपने देश की भौगोलिक स्थितियों के साथ मेल खानेवाले पदार्थों के पर्याय अगर बाजार
में जल्द से जल्द नहीं उतारे गए तो मैगी की जगह कोई और कंपनी के नूडल्स, पास्टा, पित्झा,
बिस्कीट, ब्रेड, फ्लेक्स, चिप्स, बर्गर आदि लेंगे।
भारत जैसे विशाल और
विभिन्न बोली-भाषाओं के देश में खानपान का भी बड़ा वैविध्यपूर्ण चलन रहा है। बंगाल
हो या केरल, कर्नाटक हो या असम हर प्रदेश की अपनी समृद्ध खानपान परंपरा है।
स्थानीय उपज पर आधारित व्यंजन बनते हैं जिनमें से कइयों को आज भारत में ही नहीं
विदेशों में भी खासी लोकप्रियता हासिल है। छोटे उद्योगों को स्थानीय उपज के सहारे
स्थानीय पसंद के व्यंजन बनाने के लिए अगर बढ़ावा दिया जाए
तो स्वास्थ्यवर्धक, पारंपरिक विविध व्यंजन स्थानीय बाजारों में उपलब्ध हो सकते
हैं। परिवहन का खर्च कम होने के कारण उनकी कीमतें भी अपेक्षाकृत कम होंगी।
महाराष्ट्र के कुछ तुरंत बननेवाले तो कुछ मेहनत से बनने वाले व्यंजनों का परिचय यहां दिया गया है जो हैं सादे लेकिन जायके में सभी अव्वल
हैं।