Thursday, July 20, 2017

‘..खल कारि कामरि’ से ‘..अधमाचे अमंगळ चित्त’ तक

©संध्या पेडणेकर
भक्तिकालीन हिंदी कवियों में सूरज जैसे दीप्तिवान माने जानेवाले सूरदास का एक पद है जिसमें उन्होंने ‘खल’ यानी बुरे व्यक्ति के लक्षण बताए हैं -
छांड़ि मन हरि-विमुखन को संग।
जाके संग कुबुधि उपजति है, परत भजन में भंग।।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाये गंग।
खर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषन अंग।।
पाहन पतित बान नहि भेदत, रीतो करत निषंग।
'सूरदास' खल कारि कामरि, चढ़ै न दूजो रंग।। -विनय के पद, सूरदास
भक्ति भाव से रहित व्यक्ति का संग कभी न करने की सलाह देते हुए सूरदास इस पद में बताते हैं कि ऐसे व्यक्ति की संगत से मन में कुबुद्धि पैदा होती है, बुरे विचार पनपते हैं और भजन, भगवन्भक्ति में भंग पड़ता है। इसलिए ऐसे व्यक्ति से दूर ही रहने की सलाह देते हुए वह कहते हैं कि, कौए को कपूर चुगाने से, कुत्ते को गंगा नहाने से, गधे को अरगजा का (पीले रंग का सुगंधित लेप जिसे केशर, चंदन, कपूर आदि मिला कर बनाया जाता है) लेप लगाने से या बंदर को आभूषण पहनाने से जिस प्रकार उनकी मूल वृत्ति में कोई फेर नहीं आता; बिल्कुल उसी प्रकार बुरे या दुष्ट लोगों में भी किसी उपाय कोई बदलाव नहीं आता। भले आप तरकश के सारे बाण ही चला लें, पत्थर बिंध नहीं सकता उसी प्रकार किसी भी उपाय से दुर्जनों का चित्त कभी अच्छे वचनों से बदल नहीं सकता। सूरदास बताते हैं कि बुरे लोग काले कंबल की तरह होते हैं जिन पर कभी कोई दूसरा रंग चढ नहीं सकता।
सूरदास का आविर्भाव 1498से 1580 के बीच उत्तर भारत में मथुरा-आगरा के बीच पड़नेवाले रुनकता नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। ज्ञान योग से अटल भक्ति और निष्ठापूर्ण समर्पण को सूरदास ने सद्गति पाने का साधन माना। कृष्णभक्ति के उनके पदों की मधुरता सहज ही मन मोह लेती है।
महाराष्ट्र के महान संत कवि तुकाराम का जन्म पुणे के पास देहू गांव में हुआ और 1680 से 1650 के दरमियान उनका समय माना जाता है। उनका एक प्रसिद्ध पद है जिसमें तुकाराम कहते हैं-
निंबाचिया झाडा साकरेचें आळे। आपली ती फळें न संडी च।।1।।
तैसे अधमाचे अमंगळ चित्त। वमन ते हित करुनि सांडी।।धृ.।।
परिसाचे अंगी लाविलें खापर। पालट अंतर नेधे त्याचें।।2।।
तुका म्हणे वेळू चंदना संगती। काय ते नसती जवळिके।।3।।
-3389, अभंगांचा गाथा, देहू प्रत
हिंदी के संत कवि सूरदास के ऊपर दिए पद की ही तरह मराठी के इस संत शिरोमणि इस पद में खल के लक्षण बताते हुए कहते हैं, नीम के पेड़ को चीनी मिला पानी पिलाने से भी निंबौरी की कडवाहट कम नहीं होती। दुर्जनों का मन भी नीम की कडवी निंबौरी जैसा होता है। वे लोगों का अहित ही करते हैं। खपरैल अगर पारस से छू जाए फिर भी उसमें कोई बदलाव नहीं आता और चंदन के साथ उगे बांस में चंदन के गुण नहीं आते। उसी तरह दुर्जनों के चित्त की अमंगलता कभी नहीं बदलती। तुकाराम दुर्जनों को कभी भी अपने दुर्गुणों का त्याग न करनेवाले बताते हुए सज्जनों को आगाह करते हैं कि संगत के असर से बचने के लिए सज्जनों को ही दुर्जनों से दूरी बरतनी चाहिए।
बचपन में कभी सुना था कि केवल अच्छे गुणों से परिपूर्ण होते हैं भगवान, राक्षसों में केवल बुरे गुण होते हैं और मानव में अच्छे-बुरे दोनों गुण होते हैं। संतों ने मानव को इस बात से परिचित कराते हुए कहा है कि अच्छाई को अपनाते हुए देवत्व की ओर अग्रसर होने की कोशिश करना ही मानवोचित है। अपने हिस्से आनेवाली सामाजिक बुराइयों का सामना करते हुए संतों ने अपना कल्याण तो साध्य कर ही लिया, साथ ही अपनी रचनाओं से युगों तक समाज-प्रबोधन की व्यवस्था भी की।