देवि सरस्वती |
छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि 'परम आनंद में रचनात्मकता होती है। जहां परमानंद नहीं, वहां रचना भी संभव नहीं। और जो आनंद रचना का सुख नहीं पा सकता, वह परमानंद की स्थिति भी नहीं पा सकता।' प्रकृति में व्याप्त इसी परम आनंद की ओर इशारा करता है वसंत का आगमन। ठंड के मौसम में ठहरी और निष्क्रिय धरती पर वसंत के पदार्पण से ही परम आनंद के इस तत्व का आभास हमें मिलने लगता है। समूची धरती वसंत के स्वागत के लिए इसलिए आतुर-सी जान पड़ती है, क्योंकि उसे अपनी निष्क्रियता त्याग कर नया सृजन करना होता है। नए सृजन की यह प्रक्रिया, प्रकृति में आनंद की शाश्वत उपस्थिति का आभास देती है। आनंद का दूसरा नाम है प्रेम और प्रेम का अभिन्न अंग है काम। इसीलिए वसंत को प्रेमीजनों का सखा कहा गया है। परंपरा के अनुसार माघ शुक्ल पंचमी का दिन वसंत का स्वागत करने वाला पर्व है। हिंदू संस्कृति में इस पर्व को मनाने के दो उद्देश्य हैं – पहला, देवि सरस्वति का अभिवादन। देवि सरस्वती को शिक्षा, साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। हर साल वसंत पंचमी को देवि
सरस्वती का जन्मदिवस मनाया जाता है। इस दिन मंदिरों में, घरों में और शैक्षिक
संस्थानों में देवि सरस्वती की समारोहपूर्वक पूजा की जाती है। ज्ञान और कला की देवि हैं सरस्वती। विद्वत्ता और सजगता का
प्रतीक। देवि सरस्वती को वेदों की माता माना जाता है और अक्सर वेदपाठ की शुरुआत और
समाप्ति सरस्वति वंदना से की जाती है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन
को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है । इसे प्रकारान्तर से बुद्धि पक्ष की
आराधना के रूप में देखा जा सकता है।
वसंत पंचमी मनाने का दूसरा उद्देश्य होता है - प्रकृति में आ
रहे बदलावों का- वसंत ऋतु का स्वागत करना। वसंत ऋतुराज है। ठंड में किसी गहरी , ठिठुरी गुफा जैसे वातावरण में जब वसंत के आगमन के साथ सूरज की सहलाती किरणें प्रवेश करती हैं, तब शीतनिद्राधीन कामदेव जागते हैं। अपने कामबाणों का तरकश पीठ पर चढ़ाकर वे अनुराग का धनुष उठा कर बाहर निकलते हैं। उनके बाणों से हर कोई घायल हो जाता है , क्योंकि वसंत के कारण इन बाणों के असर के लिए जरूरी वातावरण पहले से तैयार होता है। प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी रूप इस ऋतु में देखने को मिलता है। इसके आते ही चारों तरफ मन को छू लेने वाली शांति छा जाती है। अन्य ऋतुओं के प्रभाव हमें कहीं न कहीं सताते हैं। ग्रीष्म की झुलसाती लू , वर्षा की उत्पाती झडियां, हेमंत की हड्डियां बजाने वाली ठंड... लेकिन वसंत इनसे मुक्त है। प्रकृति की समावस्था का रमणीय रूप वसंत में दिखाई देता है। उसके साथ सहज तादात्म्य होता है, क्योंकि सौंदर्य हर किसी को अभिभूत करता है।
वसंत के आगमन के साथ प्रकृति में होने वाले बदलाव केवल आँखों को ही नहीं, मन को भी विभोर करते हैं। सरसों के पीले फूल हवा के झोंकों के साथ लहराते हैं। पेड़ों पर नए पत्ते उग आते हैं। खेतों में नए जीवन का संचार होता है। कोयल की कूक इस आनंदोत्सव में शामिल होने का आमंत्रण देती है। मंजरियों से लद कर आम्र वृक्ष बौरा जाते हैं। गेहूं की फसल जैसे गहरी नींद से जाग उठती है। सरसों पीले वस्त्रों में सजकर शायद यही संदेश देना चाहती है कि हमें जीवन की राह पर झूमते हुए आगे बढ़ना है। संकट आते हैं तो भले कुछ समय के लिए हमारी संज्ञाएं कुंद पड़ जाएं , लेकिन अनुकूल वातावरण में फिर हमें आकाश की ऊंचाइयों को नापने की कोशिश करनी चाहिए। संकटों से हमारी गति अवरुद्ध नहीं होनी चाहिए, क्योंकि हमारा जन्म ही प्रगति की ओर अग्रसर होने के लिए हुआ है। बढ़ना ही हमारा स्थायी भाव है, जीवन के साथ हमारे तादात्म्य की यह निशानी है। आनंद का मूल भाव भी शायद यही हो। सरसों की चटकीली, सुनहरी ऊर्जा की तरह हमें भी अपने संक्षिप्त से जीवन काल में हर क्षण का आनंद उठाने की, हर क्षण में जीने की कोशिश करनी चाहिए। आज जिससे हमारा परिचय नहीं है उस परम कृपालु , स्नेही, परमेश्वर से अपने जुड़े होने की भावना में हमें विश्वास करना चाहिए। वसंतागमन के बहाने जीवन के हर आनंद का वह खुले दिल से स्वागत करती है।
आयुर्वेद में वसंत को कामोद्दीपक कहा है। प्रकृति के सौंदर्य और वातावरण के आनंद का असर अगर हमारी कामेच्छा पर न पड़े, तो ही आश्चर्य है, क्योंकि काम हमारे आनंद का उद्गार है। काम को सृजन और प्रकृति से जोड़ने की हमारी परंपरा रही है। काम के साथ जुड़ा शरीर के सहारे परमानंद तक पहुंचने की क्रिया का आध्यात्मिक पहलू ही उसे अनंत के साथ जोड़ता है। मानव और प्रकृति को जोड़ने वाला यह महीन तत्व वसंत के आगमन से धरती पर होने वाले बदलावों को हमारी संवेदनाओं तक पहुंचाकर सृजन से जुड़ी कामेच्छा की ओर मानव को प्रेरित करता है। आइए, प्रकृति के इस आनंदोत्सव में हम भी शामिल हो जाएं।