© -संध्या पेडणेकर
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा
प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख
है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित
हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की
प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं। (यह kavitakosh.com
पर उपलब्ध जानकारी का संक्षिप्त हिस्सा है।)
कोई आस्तिक हों या नास्तिक, भक्ति अपने आप में उदात्त
भाव है इस बात से किसीको इनकार नहीं हो सकता। भगवान के अस्तित्व को लेकर आपके मन
में शंका उत्पन्न हो सकती है, भक्त के मन में पल रही भक्ति भावना की उदात्तता, उस भक्ति के अवलंब भगवान के
प्रति उसका समर्पण निश्चय ही किसीको भी अभिभूत करनेवाला होता हैं। हिंदी साहित्य
के प्रसिद्ध संत कवि सूरदास के पद इसका सटीक उदाहरण हैं। पाठक को अनायास इस लोक से
अलौकिक की ओर, भक्ति की राह पर ले जाते हैं। उनके एक पद को समझने की यह कोशिश -
संत सूरदास
परिचय : हिन्ढी साहित्य में कृष्ण-भक्ति धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में
महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। उनका जन्म १४७८ ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग के
किनारे स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के
जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर
रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए।
वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश
दिया। सूरदास अष्टछाप कवियों में से एक हैं। उनकी मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली
ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।
रचनाएं -सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -
१ सूरसागर
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती
५ ब्याहलो इनमें से अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती
५ ब्याहलो इनमें से अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन
हीं मनहिं रिझावत॥
बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि
टेरि बुलावत।
कबहुंक बाबा नंद पुकारत
कबहुंक घर में आवत॥
माखन तनक आपनैं कर लै तनक
बदन में नावत।
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ
मैं लोनी लिए खवावत॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला
हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल चरित नित
नितही देखत भावत॥
अर्थ:- इस पद में सूरदास ने
कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण आंगन में अकेले खेल रहे हैं।
जो मन में आता है गाते हैं। उनके नन्हें पैर बीच बीच में थिरकने लगते हैं मानो
गाकर वे स्वयं को रिझा रहे हैं। कभी वह भुजाओं को उठाकर घास चरते चरते दूर निकल गई
काली-श्वेत गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंदबाबा को पुकारते हैं और कभी घर में आ जाते हैं।
अपने हाथों में थोड़ा-सा माखन लेकर कभी खाते खाते अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना ही
प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता
यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन प्रसन्न होती हैं। सूरदास कहते हैं कि इस
प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य ही हर्ष पाती हैं।
भाव के साथ तादात्म्य पाकर
प्रकट होनेवाली कला संपर्क में आनेवाले पर अपनी छाप छोड़ती है। सूरदास के इस पद के
साथ पाठक का तादात्म्य केवल इसलिए नहीं होता कि इस पद की भाषा अतिशय सरल है, इसमें व्यक्त भावों से वह
भलीभांति परिचित है या इसमें सूरदास की श्रीकृष्ण के प्रति जो अपार भक्ति है वह
व्यक्त हुई है और उससे वह अभिभूत होकर नतमस्तक हो रहा है। ये सभी कारण तो हैं ही, साथ ही एक और कारण है जो
शायद इन सभी कारणों से श्रेष्ठतर है और वह है श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति और
अपने भगवान से उनका तादात्म्य। अपने आराध्य के मनभावन रूप की छवि को कल्पना में
देखते हुए सूरदास का मन आनंद विभोर हो उठा है। उनका वही आनंद शब्द का रूप लेकर
व्यक्त हुआ है और इसीलिए इस पद में या कहिए कि श्रीकृष्ण भक्ति में गाए उनके हर पद
में व्यक्त भाव सीधे पाठकों के मन तक पहुंचते हैं।
कल्पना कीजिए, नन्हा बालक अपने में मगन
खेल रहा है। बच्चे जब अपने आप ही खेलते रहते हैं तो वह दृश्य बड़ा मनभावन होता है।
उनके खेल में अपने आसपास घट रही घटनाएं अपने आप शामिल होती रहती हैं और उन घटनाओं
में कोई तारतम्य नहीं होता। यहां बालकृष्ण कुछ गुनगुना रहे हैं और अपनी गानकला और
गीत पर मुग्ध होने के कारण उनके चरण अपने आप थिरकने लगे हैं। खेलते खेलते अचानक
उन्हें अपनी गैयों की याद आती है और वे थोडी दूर जाकर हाथ उठा कर अपनी गायों को वापिस
बुलाते हैं। कभी दरवाजे तक जाकर नंद बाबा को पुकारते हैं - और शायद इस अंदाज में
जैसे यशोदा मैया उन्हें पुकारती हो, तो कभी उसी रौबदाब से घर में ऐसे प्रवेश करते हैं मानो नंदबाबा प्रवेश कर रहे
हों। सहेज कर रखे माखन के मटके पर उनकी नज़र जाती है तो उसमें से वह माखन निकाल कर
खाते हैं, इस कोशिश में सफाई बिल्कुल नहीं है, ऐसा अनघडपन है कि मुंह तक जाते जाते हाथ का
मक्खन कई और जगह छू जाता है। थोड़ा मक्खन खाया, थोड़े से शरीर सन गया। इतने में खंभे पर जड़े
कांच में उन्हें अपनी छवि दिखाई देती है। होंगे वे तीन लोक के स्वामी लेकिन उस
वक्त वे नन्हें हैं। उस उम्र के बालकों की तरह वे नहीं जान पाते कि आईने में
कोई और बालक नहीं, वह तो उन्हींका प्रतिबिंब है। उन्हें लगता है कि आईने में
एक और बालक है और वे आगे बढ़ कर आईनेवाले उस बालक को भी माखन खिलाने लगते हैं।
सूरदास का यूं आराध्य को बालरूप में देखना और उसकी अबोधता और मासूमियत पर रीझना
धन्य है। भक्ति की यह परिसीमा है।
और माता यशोदा? कोई मां अपने नन्हे को कभी
अकेला नहीं छोड़ती। अगर वह दूर भी होता है तो उस पर उनकी नजर होती है। जैसे आकाश
में उड़नेवाले पंछी का ध्यान घोंसले में उसका इंतज़ार कर रहे चूजे पर होता है, बिल्कुल उसी तरह। अपने बच्चे को खुश
देख कर खुश होती मां की तरह ही दूर से अपने बालक की भंगिमाएं, उसके खेल देख देख कर माता यशोदा के मन मे ममत्व उमड
रहा है। पाठक को अहसास होता है कि, बालक कृष्ण को छिप कर देखती यशोदा का मन हो रहा है कि वह
उसे उठा कर गले लगा ले, क्योंकि, अपने बालक को जब वह इस तरह खेलता देखता है तो उसके मन में
यही भाव पैदा होता है।