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-संध्या पेडणेकर
हिंदू धर्म में जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य बताए गए हैं- धर्म ,अर्थ , काम और मोक्ष। इनमें से सबसे वरीयता मिली है धर्म को। लेकिन हिंदू धर्म कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसकी स्थापना किसी एक संत या पैगंबर ने की हो। यह युगों-युगों में विकसित हुई , विस्तृत पैमाने पर अपनाई गई एक जीवन शैली है , जिसके पीछे समग्र जीवन के अनुभव हैं। इसीलिए इस धर्म में हम सभी भावों का समावेश देखते हैं। इसीकारण हिंदू देवी-देवता भी तमाम मानवीय गुण-दोषों से परिपूर्ण पाए जाते हैं। लेकिन उनके प्रति श्रद्धा में कहीं कोई कमी नहीं होती और समर्पण में खोट नहीं आता। इसी कारण जीवन के सभी अंगों को हिंदू धर्म में समान रूप से मान्यता मिली है। संसारी व्यक्ति को भी यहां मुक्ति की कामना का अधिकार है। हिंदू धर्म यह नहीं कहता कि मुक्ति पाने का एकमात्र रास्ता इच्छाओं का दमन ही है। इस धर्म में जीवन के चार प्रमुख उद्देश्यों में अर्थ और काम को भी उचित स्थान देना इस चिंतन की पुष्टि करता है।
इन चार उद्देश्यों के बारे में हिंदू मन में कहीं कोई दुविधा नहीं होती। जीवन के लिए जरूरी अर्थोजन करने और अपनी संपत्ति का भोग करने को बुरा नहीं माना जाता। धार्मिक होना और मोक्ष की कामना हर एक के मन में होना स्वाभाविक माना गया है। लेकिन कामेच्छा या काम क्रिया को भी हमारे धर्म में नीची निगाहों से नहीं देखा गया है। अध्ययन करने से पता चलता है कि संस्कारों के नाम पर काम प्रसंगों के दमन की परंपरा नई है।मध्ययुगीन भारत में निर्मित मंदिर इसकी गवाही देते हैं।
900 से 1400 ईस्वी के दरम्यान भारत में बने मंदिरों की दीवारों पर अंकित कामसंबंधी शिल्प आज भी कौतूहल मिश्रित आश्चर्य का भाव पैदा करते हैं। खजुराहो और कोणार्क के मंदिर इसका उदाहरण हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए शिल्पों की जीवंतता यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि यहाँ काम को भी भक्ति की भावना की तरह ही पवित्र माना गया है- पुनर्निर्माण की संभावनाओं से भरी क्रीड़ा आखिर अपवित्र कैसे हो सकती है ? जीवन का वह एक अनिवार्य अंग है और जीवन से संबंधित सभी बातें निर्मल और सुंदर होती हैं।
इसी मान्यता के तहत भारतीय जीवन ने कामक्रीड़ा को एक शास्त्र का रूप दिया , उसके नियम बनाए और हर किसी को अपनी इच्छा के अनुसार इस क्रीड़ा का स्वरूप चुनने का दर्शन भी दिया। इसी मान्यता ने पवित्रपूजास्थलों में भी काम को प्रतिष्ठित करने में सहायता दी। चंदेलों ने दसवीं और बारहवीं शती के दरम्यान खजुराहो के मंदिरों का निर्माण किया। अन्य कलाओं की तुलना में यहां केवल दसवें हिस्से में ही कामकला के शिल्प देखने को मिलते हैं। इसके बावजूद काम भावना के प्रकटीकरण को लेकर इन शिल्पों की विविधता , निडरता ,मंदिर की दीवारों पर उनके स्थान और अत्यंत सूक्ष्मता तथा विस्तार से किए गए चित्रण को देख कर लगता है कि ये शिल्प केवल दीवारों पर जगह भरने के लिए नहीं बनाए गए थे , बल्कि मंदिरों में आने वाले भक्तों के ध्यानाकर्षण के उद्देश्य से भी बनाए गए थे। मंदिर से प्राप्त अनुभवों में इन शिल्पों को देखने का आनंद शामिल होना भी जरूरी माना गया था।
खजुराहो के इन शिल्पों में एक तरफ हिंदू दर्शन के त्याग , वैराग्य और परात्मभाव आदि को व्यक्त करने वाले शिल्प हैं , तो दूसरी तरफ काम को अनन्य महत्व देने वाले मूल्यों को प्रतिबिंबित करने वाले शिल्प भी हैं। मंदिरों में व्यक्त कला के ये उत्कृष्ट नमूने भक्ति और समर्पण के भाव का उतना ही प्रतिनिधित्व करते हैं , जितना मानवीय जीवन का। मंदिरों के ये शिल्प स्पष्ट करते हैं कि हिंदू धर्म केवल दूसरी दुनिया या पुनर्जन्म की ही दुहाई नहीं देता, सिर्फ कर्म में नैतिकता को प्रतिष्ठित करने का ही आग्रह नहीं करता , निर्वाण में ही जीवन की इति नहीं मानता ,जीवन से पलायन कर भूख और कठिन तप को ही सर्वस्व मानने वाले योगियों को ही आदर नहीं देता , वरन जीवन की यथार्थता को भी इसमें उतना ही महत्व प्राप्त है। ये शिल्प बताते हैं कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार धर्म इस धरती की भौतिकता से भी जुड़ा है। पवित्र और ऐहिक , उदात्त और सांसारिक , आध्यात्मिक और दैहिक ,अनंत और दैनिक को जोड़ने वाली सार्वभौम कड़ी है हिंदू धर्म। इसमें ' निषिद्ध या हेय कुछ भी नहीं ' की भावना और ' परमात्मा को जिस रूप में चाहो प्राप्त करो ' के दर्शन ने इस धर्म को जैसी व्यापकता दी है , वैसी किसी भी अन्य धर्म में देखने को नहीं मिलती। इस मायने में हम मंदिरों को जीवन का प्रतिबिंब कह सकते हैं।
इन चार उद्देश्यों के बारे में हिंदू मन में कहीं कोई दुविधा नहीं होती। जीवन के लिए जरूरी अर्थोजन करने और अपनी संपत्ति का भोग करने को बुरा नहीं माना जाता। धार्मिक होना और मोक्ष की कामना हर एक के मन में होना स्वाभाविक माना गया है। लेकिन कामेच्छा या काम क्रिया को भी हमारे धर्म में नीची निगाहों से नहीं देखा गया है। अध्ययन करने से पता चलता है कि संस्कारों के नाम पर काम प्रसंगों के दमन की परंपरा नई है।मध्ययुगीन भारत में निर्मित मंदिर इसकी गवाही देते हैं।
900 से 1400 ईस्वी के दरम्यान भारत में बने मंदिरों की दीवारों पर अंकित कामसंबंधी शिल्प आज भी कौतूहल मिश्रित आश्चर्य का भाव पैदा करते हैं। खजुराहो और कोणार्क के मंदिर इसका उदाहरण हैं। इन मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए शिल्पों की जीवंतता यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि यहाँ काम को भी भक्ति की भावना की तरह ही पवित्र माना गया है- पुनर्निर्माण की संभावनाओं से भरी क्रीड़ा आखिर अपवित्र कैसे हो सकती है ? जीवन का वह एक अनिवार्य अंग है और जीवन से संबंधित सभी बातें निर्मल और सुंदर होती हैं।
इसी मान्यता के तहत भारतीय जीवन ने कामक्रीड़ा को एक शास्त्र का रूप दिया , उसके नियम बनाए और हर किसी को अपनी इच्छा के अनुसार इस क्रीड़ा का स्वरूप चुनने का दर्शन भी दिया। इसी मान्यता ने पवित्रपूजास्थलों में भी काम को प्रतिष्ठित करने में सहायता दी। चंदेलों ने दसवीं और बारहवीं शती के दरम्यान खजुराहो के मंदिरों का निर्माण किया। अन्य कलाओं की तुलना में यहां केवल दसवें हिस्से में ही कामकला के शिल्प देखने को मिलते हैं। इसके बावजूद काम भावना के प्रकटीकरण को लेकर इन शिल्पों की विविधता , निडरता ,मंदिर की दीवारों पर उनके स्थान और अत्यंत सूक्ष्मता तथा विस्तार से किए गए चित्रण को देख कर लगता है कि ये शिल्प केवल दीवारों पर जगह भरने के लिए नहीं बनाए गए थे , बल्कि मंदिरों में आने वाले भक्तों के ध्यानाकर्षण के उद्देश्य से भी बनाए गए थे। मंदिर से प्राप्त अनुभवों में इन शिल्पों को देखने का आनंद शामिल होना भी जरूरी माना गया था।
खजुराहो के इन शिल्पों में एक तरफ हिंदू दर्शन के त्याग , वैराग्य और परात्मभाव आदि को व्यक्त करने वाले शिल्प हैं , तो दूसरी तरफ काम को अनन्य महत्व देने वाले मूल्यों को प्रतिबिंबित करने वाले शिल्प भी हैं। मंदिरों में व्यक्त कला के ये उत्कृष्ट नमूने भक्ति और समर्पण के भाव का उतना ही प्रतिनिधित्व करते हैं , जितना मानवीय जीवन का। मंदिरों के ये शिल्प स्पष्ट करते हैं कि हिंदू धर्म केवल दूसरी दुनिया या पुनर्जन्म की ही दुहाई नहीं देता, सिर्फ कर्म में नैतिकता को प्रतिष्ठित करने का ही आग्रह नहीं करता , निर्वाण में ही जीवन की इति नहीं मानता ,जीवन से पलायन कर भूख और कठिन तप को ही सर्वस्व मानने वाले योगियों को ही आदर नहीं देता , वरन जीवन की यथार्थता को भी इसमें उतना ही महत्व प्राप्त है। ये शिल्प बताते हैं कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार धर्म इस धरती की भौतिकता से भी जुड़ा है। पवित्र और ऐहिक , उदात्त और सांसारिक , आध्यात्मिक और दैहिक ,अनंत और दैनिक को जोड़ने वाली सार्वभौम कड़ी है हिंदू धर्म। इसमें ' निषिद्ध या हेय कुछ भी नहीं ' की भावना और ' परमात्मा को जिस रूप में चाहो प्राप्त करो ' के दर्शन ने इस धर्म को जैसी व्यापकता दी है , वैसी किसी भी अन्य धर्म में देखने को नहीं मिलती। इस मायने में हम मंदिरों को जीवन का प्रतिबिंब कह सकते हैं।