Saturday, December 8, 2018

सज्जन किसे कहा जाए?

©संध्या पेडणेकर
आसान लगनेवाले इस कठिन सवाल का हल बताते हुए तुकाराम ने कहा है- चंदनाचे हात पायहि चंदन । परिसा नाहीं हीन कोणी अंग ॥१॥ दीपा नाहीं पाठीं पोटीं अंधकार । सर्वांगी साकर अवघी गोड ॥२॥ तुका म्हणे तैसा सज्जनापासून । पाहतां अवगुण मिळेचि ना ॥३॥ -संत तुकाराम, 3314 हिंदी में - चंदन के हाथ और पैर भी चंदन। पारस का कोई अंग हीन नहीं।।1।। दीप के आगे-पीछे अंधेरा नाहीं । शकर अंंतर्बाह्य मीठी होय।।2।। तुका कहे वैसे सज्जन के संग। ढूंढे से अवगुण ना मिले।।3।। अनुवाद - ©संध्या पेडणेकर
थोडा विस्तार से कहें तो, चंदन शब्द से हमें सुगंध महसूस होती है, खुद घिस कर चंदन औरों के जीवन में सुगंध और शीतलता भर देता है। अंतर्बाह्य निर्मल होता है चंदन। लोहे की गुणवत्ता बढाता है पारस। उसका कोई अंश इस गुण से अछूता नहीं होता। वह पूरा का पूरा परोपकारी होता है। दीप के आस-पास कभी अंधेरा ठहर नहीं पाता। शक्कर हर अंग से मीठी होती है। अंदर से और बाहर से भी। तुकाराम कहते हैं कि, सज्जन व्यक्ति भी इन्हीं की तरह होता है। ढूंढे से भी उसमें अवगुण नहीं मिलते। चंदन यानी सुगंध और शीतलता, पारस यानी परोपकार- स्पर्श मात्र से गुणवत्ता बढ़ानेवाला, दीपक यानी उजाला, शक्कर यानी मिठास। साथ ही यहां तुकाराम ने इनमें अतर्निहित एक और गुण भी बताया है - घिस कर, जल कर और घुल कर भी वे अपने गुणों का त्याग नहीं करते। उनके कारण किसीका बुरा नहीं होता। तुकाराम सज्जन उसको बताते हैं जो पारदर्शी अच्छाई से परिपूर्ण हों। जो उनके संपर्क में आए, उसके जीवन में सुगंध, शीतलता, उजास और मिठास जैसी सकारात्मकता भर देते हैं, उसके व्यक्तित्व को उदात्त बनाते हैं। सज्जन की इस परिभाषा से किसे इनकार होगा? यहां सुनिये पद सुमन कल्यणपुर की आवाज में - https://www.youtube.com/watch?v=3LF_wh0fN90

आनंद की तरंगें

-©संध्या पेडणेकर
आनंद और भक्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इन दो पहलुओंवाला सिक्का है इन्सान।
मन में भक्ती हो तो आनंद भी होता है, मन तब भारमुक्त होता है। इन दोनों का अस्तित्व अभिन्न है।
अलग शब्दों में कहें तो जहां शंका हो वहां चिंता है, दुख है, दर्द है... वहां भक्ति संभव नहीं और अगर भक्ति नहीं तो आनंद भी नहीं।
भक्ति और आस्था भी अभिन्न हैं। अऩास्थाग्रस्त व्यक्ति श्रद्धावान नहीं हो सकता और आनंद भी नहीं पा सकता। यह कथन दुःसाहसी ज़रूर है, लेकिन, मिथ्या भी नहीं है।
यहां भक्ति को विस्तृत अर्थ में ही लिया जाना अपेक्षित है। किसी एक भगवान के प्रति भक्ति की, मूर्त या अमूर्त में भक्ति या आस्था की बात भी यहां नहीं हो रही। जीवन और जीवों के प्रति आस्था से भरे आस्तिक मन की बात यहां हो रही है। भक्ति के भाव की, आनंद की सृष्टि करनेवाले आस्थाभरे मन की ओर यहां संकेत है।
आराध्य कोई भी हो, या कि, आराध्य न भी हो, आनंद महसूस करने की क्षमतावाले मन में आस्था के जो भाव उपजते हैं उनसे जीवन समृद्ध होता है। ईश्वर को मानते हों या निरीश्वरवादी हों (यह भी हिंदू धर्म का एक अंग है), अगर जीवन में आनंद नहीं तो आपके जीवन के प्रति नजरिए में कुछ गड़बड़ है।
"आनंदाचे डोही आनंदतरंग । आनंदचि अंग आनंदाचे ॥१॥
काय सांगो जालें कांहींचियाबाही । पुढें चाली नाहीं आवडीनें ॥२॥
गर्भाचे आवडी मातेचा डोहळा । तेथींचा जिव्हाळा तेथें बिंबे ॥३॥
तुका म्हणे तैसा ओतलासे ठसा । अनुभव सरिसा मुखा आला ॥४॥"
-संत तुकाराम, 3241 देहू प्रत
हिंदी में-
आनंद के कुण्ड में आनंद की लहरें। आनंद का अंग है आनंद।।१।।
कैसे बताऊं मन कैसे उभचुभाया। आगे बढने की मर्जी ना है।।२।।
गर्भ की पसंद ही मां की इच्छा होती है। अपनत्व यूं झलकता है॥३॥
तुका कहे मैंने वही कहा। अनुभव किया सो होठों पर आया ॥४॥
अनुवाद-संध्या पेडणेकर
इस मशहूर पद में तुकाराम ब्रह्मानंद की बात करते हैं।
तुकाराम के आराध्य हैं विठ्ठल। विठ्ठल को संबोधित कर वह कह रहे हैं कि, जिसका कोई आरपार नहीं ऐसे ब्रह्मानंद के स्थिर कुण्ड में उठनेवाली तरंगें हैं सांसारिक सुखों की हल्की तरंगें। शब्दों से परे, उस अवर्णनीय आनंद का ही अंग यह मूर्त आनंद भी है। इस आनंद के जरिए ब्रह्मानंद की झलक पाने का अहसास मुझे हुआ और मेरी अजीब हालत हुई। क्या हुआ, या हो रहा है यह मैं बता नहीं पा रहा हूं। आनंद की इस अनुभूति के बाद दुनियादारी से मेरा मन हट गया है, सांसार की ओर बरबस बढ़ते मेरे कदमों की चाल अपने आप थम गई है।
गर्भ में पलनेवाले जीव की पसंद माता की इच्छाओं में झलकती हैं। बिल्कुल उसी प्रकार हे विठ्ठला, तुम्हारे कारण मेरे मन में ब्रह्मानंद का जो भाव उत्पन्न हुआ वही मेरे मुख से प्रकट हो रहा है। मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति की भावना शब्दों का रूप लेकर मेरे होठों से प्रकट हो रही है। गर्भ और माता का जो रिश्ता है उसी तरह का रिश्ता तुम्हारे और मेरे बीच है। तुम हो ब्रह्मानंद और ब्रह्मानंद में उठनेवाली एक हल्की, सरसराती तरंग की तरह मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति से मिलनेवाला आनंद है। इस आनंद में मुझे ब्रह्मानंद की झलक मिली और मैं विभोर हो गया।
ब्रह्मानंद की झलक पाने का कारण बने विठ्ठल के प्रति तुकाराम के मन का कृतज्ञताभाव पूरे पद में अंतर्धारा बन कर बहता हुआ हम महसूस कर सकते हैं।
कृतज्ञता, भक्ति, आनंद ये सब सकारात्मक भावनाएं हैं जो जीवन में सकारात्मक ऊर्जा ले आती हैं। ब्रह्मानंद की झलक पाने के लिए मन में इन भावनाओं का होना अवश्यंभावी है।
और, आनंद की प्राप्ति के लिए, मेरी राय में उदारता की भावना भी उतनी ही आवश्यक होती है। ‘मैं’ को घेर कर खड़ी चहारदीवारी में बंद आत्मा को ब्रह्मानंद का अहसास हो पाना संभव नहीं है। सांसारिक सुख-दुःखों की, संकीर्णता की चहारदीवारी का घेरा आत्मा जब तोडती है तभी उसे असीम का अहसास और ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है। तुकाराम इसी ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। -©संध्या पेडणेकर
पद सुनिए लता मंगेशकर के स्वर में-
https://www.youtube.com/watch?v=tJWgy0uHkIM

आराध्य की रूपमाधुरी

©संध्या पेडणेकर
प्रेम और भक्ति में एक समानता है, जिससे लगन लगती है उसकी रूपमाधुरी मन-मस्तिष्क पर छा जाती है। उसे देखे बगैर चैन नहीं आता और उसके बिना कोई दूजा नहीं भाता। दिन-रात मन की आंखों के आगे अपने आराध्य की मूरत छायी रहती है। विकल भाव शब्दों का रूप लेकर व्यक्त होते हैं। भाषा कोई भी लीजिए, आप इन स्थितियों में फेर नहीं पाएंगे।
कृष्णभक्त सूरदास के कृष्ण की रूपमाधुरी का वर्णन करनेवाले पद हों या विठुमाऊली की भक्ति में डूबे तुकाराम के अपने आराध्य के रूप का गुणगान करनेवाले पद हों – शब्दों का, उपमाओं का थोड़ा-बहुत फेर हो तो हो, भक्ति का भाव समान रूप से ओतप्रोत मिलेगा।
श्रीकृष्ण के बालरूप का वर्णन जैसा सूरदास ने किया है बिरला ही दुनिया के किसी कवि ने किया हो। बालकृष्ण के रूप की दिव्यता का जैसे वह भक्तों को दर्शन कराते हैं वह अनुपमेय है। इस पद में वह कह रहे हैं -
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥– सूरदास, ‘कविता कोश’ से *
यहां सूरदास कह रहे हैं, घुटनों के बल आंगन में चलनेवाले बालकृष्ण कितने सुंदर लग रहे हैं। उनके एक हाथ में मक्खन का गोला है। उनके पूरे बदन में मिट्टी लगी है और मुंह पर दही लगा हुआ है। उनके गाल सुंदर हैं, चंचल आंखें नटखट भाव लिए हैं और उनके माथे पर गोरोचन का तिलक है। उनके माथे पर झूलती बालों की लट ऐसे लगती है मानो मुखरूपी कमल का मधुपान किए भंवरे मतवाले होकर झूम रहे हों। माता यशोदा ने उनके गले में हार और बघनखा पहनाया है जो उनपर खूब जंच रहा है। श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन एक पल के लिए पाकर जीवन सार्थक हो जाता है, अन्यथा सौ कल्पों तक का जीवन भी निरर्थक है।
इसी प्रकार, मराठी संत कवि तुकाराम का कहना है कि, विठ्ठल का रूप मैं जीवन भर निहारता रहूं तब भी मेरा मन तृप्त नहीं होगा।
विठुमाउली की रूप माधुरी का वर्णन करते हुए तुकाराम की वाणी विशेष रूप से प्रवाही हो जाती है। अपने आराध्य के रूप का वर्णन करते हुए उन्होंने जो भावपूर्ण अभंग लिखे हैं उनमें सबसे अधिक प्रचलित और लोकप्रिय अभंग है –
सुंदर ते ध्यान उभे विटेवरी। कर कटावरी ठेवूनियां।।1।।
तुळसीचे हार गळां कासे पीतांबर। आवडे निरंतर ते चि रूप।।धृ।।
मकरकुंडले तळपती श्रवणीं। कंठी कौस्तुभमणि विराजित।।2।।
तुका म्हणे माझें हें चि सर्व सुख। पाहीन श्रीमुख आवडीनें।।3।।
-2. अभंगांचा गाथा, देहू प्रत **
डॉ. आनन्दप्रकाश दीक्षित द्वारा हिंदी में अनुवाद-
"तेरा रूपनिहारू सुंदर, ईंट खडे, कटि हाथ धरे ॥
तुलसीमाल गले वर राजै, पीतांबर परिधान करे ॥
वही रूप भाए प्रतिपल, झलमल मकराकृति कुंडल कर्णं खरे ॥
कंठ विराजित कौस्तुभमणि, प्रभु अनुपम छवि निखरे ॥
तुका कहत पाऊँ पूरन सुख, श्रीमुख निरखूँ चाव भरे ॥"
http://tukaram.com/ hindi/ dixit. asp से धन्यवाद सहित.
माना जाता है कि, भक्त पुंडलिक ने कहा कि हे विठ्ठला, माता-पिता की सेवा में लगा हूं, अभी आता हूं। तब तक तुम इस ईंट पर खड़े रहो। बस, भाव का भूखा विठ्ठल तब से कमर पर हाथ रख कर ईंट पर खड़ा विठ्ठल पुंडलिक से मिलने का इंतजार कर रहा है। भक्त के लिए इतना उदार भाव रखनेवाले पांडुरंग की छवि का वर्णन करते हुए तुकाराम कहते हैं – ‘ईंट पर खड़े विठ्ठल के सुंदर रूप ने मन को मोह लिया है। विठ्ठल ने अपने दोनों हाथ कमर पर रखे हैं, पीत वस्त्र धारण किया है और उनके गले में तुलसी की माला है। विठ्ठल का यह सुंदर रूप मुझे हमेशा मोहता आया है। उनके कानों के मकर-कुंडल चमचमाते हैं। विठ्ठल के गले में कौस्तुभमाला पड़ी है। विठ्ठल का यह रूप मेरे मन में बसा है, मेरे सुख का वही मूल है। उसके बगैर दुनिया केवल दुखमय है। इस सुंदर रूप के प्रति मेरा मोह कभी खत्म नहीं होगा, मैं हमेशा यह रूप निहारता रहूंगा।’
सच ही है, भगवान का रूप भक्त के मन की तड़प को मिटाता है। भक्त अपने आराध्य के रूप का दर्शन कर जन्म-मृत्यु के फेरे से पार पाता है। फिर वह मराठीभाषी विठ्ठलभक्त तुकाराम हो या ब्रज की मीठी बोली बोलनेवाले हिंदी कवि सूरदास हों। -©संध्या पेडणेकर
*संत कवि सूरदास का यह अनूठा पद सुरेश वाडकर के स्वर में सुनने के लिए यू-ट्यूब का लिंक है-
https://www.youtube.com/watch?v=keCiSa5hBB8
**संत तुकाराम का यह अनूठा पद लता मंगेशकर के स्वर में सुनने के लिए यू-ट्यूब का लिंक है-
https://www.youtube.com/watch?v=wuI6XPs4xS0