-©संध्या पेडणेकर
आनंद और भक्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इन दो पहलुओंवाला सिक्का है इन्सान।
मन में भक्ती हो तो आनंद भी होता है, मन तब भारमुक्त होता है। इन दोनों का अस्तित्व अभिन्न है।
अलग शब्दों में कहें तो जहां शंका हो वहां चिंता है, दुख है, दर्द है... वहां भक्ति संभव नहीं और अगर भक्ति नहीं तो आनंद भी नहीं।
भक्ति और आस्था भी अभिन्न हैं। अऩास्थाग्रस्त व्यक्ति श्रद्धावान नहीं हो सकता और आनंद भी नहीं पा सकता। यह कथन दुःसाहसी ज़रूर है, लेकिन, मिथ्या भी नहीं है।
यहां भक्ति को विस्तृत अर्थ में ही लिया जाना अपेक्षित है। किसी एक भगवान के प्रति भक्ति की, मूर्त या अमूर्त में भक्ति या आस्था की बात भी यहां नहीं हो रही। जीवन और जीवों के प्रति आस्था से भरे आस्तिक मन की बात यहां हो रही है। भक्ति के भाव की, आनंद की सृष्टि करनेवाले आस्थाभरे मन की ओर यहां संकेत है।
आराध्य कोई भी हो, या कि, आराध्य न भी हो, आनंद महसूस करने की क्षमतावाले मन में आस्था के जो भाव उपजते हैं उनसे जीवन समृद्ध होता है। ईश्वर को मानते हों या निरीश्वरवादी हों (यह भी हिंदू धर्म का एक अंग है), अगर जीवन में आनंद नहीं तो आपके जीवन के प्रति नजरिए में कुछ गड़बड़ है।
आनंद और भक्ती एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इन दो पहलुओंवाला सिक्का है इन्सान।
मन में भक्ती हो तो आनंद भी होता है, मन तब भारमुक्त होता है। इन दोनों का अस्तित्व अभिन्न है।
अलग शब्दों में कहें तो जहां शंका हो वहां चिंता है, दुख है, दर्द है... वहां भक्ति संभव नहीं और अगर भक्ति नहीं तो आनंद भी नहीं।
भक्ति और आस्था भी अभिन्न हैं। अऩास्थाग्रस्त व्यक्ति श्रद्धावान नहीं हो सकता और आनंद भी नहीं पा सकता। यह कथन दुःसाहसी ज़रूर है, लेकिन, मिथ्या भी नहीं है।
यहां भक्ति को विस्तृत अर्थ में ही लिया जाना अपेक्षित है। किसी एक भगवान के प्रति भक्ति की, मूर्त या अमूर्त में भक्ति या आस्था की बात भी यहां नहीं हो रही। जीवन और जीवों के प्रति आस्था से भरे आस्तिक मन की बात यहां हो रही है। भक्ति के भाव की, आनंद की सृष्टि करनेवाले आस्थाभरे मन की ओर यहां संकेत है।
आराध्य कोई भी हो, या कि, आराध्य न भी हो, आनंद महसूस करने की क्षमतावाले मन में आस्था के जो भाव उपजते हैं उनसे जीवन समृद्ध होता है। ईश्वर को मानते हों या निरीश्वरवादी हों (यह भी हिंदू धर्म का एक अंग है), अगर जीवन में आनंद नहीं तो आपके जीवन के प्रति नजरिए में कुछ गड़बड़ है।
"आनंदाचे डोही आनंदतरंग । आनंदचि अंग आनंदाचे ॥१॥
काय सांगो जालें कांहींचियाबाही । पुढें चाली नाहीं आवडीनें ॥२॥
गर्भाचे आवडी मातेचा डोहळा । तेथींचा जिव्हाळा तेथें बिंबे ॥३॥
तुका म्हणे तैसा ओतलासे ठसा । अनुभव सरिसा मुखा आला ॥४॥"
-संत तुकाराम, 3241 देहू प्रत
काय सांगो जालें कांहींचियाबाही । पुढें चाली नाहीं आवडीनें ॥२॥
गर्भाचे आवडी मातेचा डोहळा । तेथींचा जिव्हाळा तेथें बिंबे ॥३॥
तुका म्हणे तैसा ओतलासे ठसा । अनुभव सरिसा मुखा आला ॥४॥"
-संत तुकाराम, 3241 देहू प्रत
हिंदी में-
आनंद के कुण्ड में आनंद की लहरें। आनंद का अंग है आनंद।।१।।
कैसे बताऊं मन कैसे उभचुभाया। आगे बढने की मर्जी ना है।।२।।
गर्भ की पसंद ही मां की इच्छा होती है। अपनत्व यूं झलकता है॥३॥
तुका कहे मैंने वही कहा। अनुभव किया सो होठों पर आया ॥४॥
अनुवाद-संध्या पेडणेकर
आनंद के कुण्ड में आनंद की लहरें। आनंद का अंग है आनंद।।१।।
कैसे बताऊं मन कैसे उभचुभाया। आगे बढने की मर्जी ना है।।२।।
गर्भ की पसंद ही मां की इच्छा होती है। अपनत्व यूं झलकता है॥३॥
तुका कहे मैंने वही कहा। अनुभव किया सो होठों पर आया ॥४॥
अनुवाद-संध्या पेडणेकर
इस मशहूर पद में तुकाराम ब्रह्मानंद की बात करते हैं।
तुकाराम के आराध्य हैं विठ्ठल। विठ्ठल को संबोधित कर वह कह रहे हैं कि, जिसका कोई आरपार नहीं ऐसे ब्रह्मानंद के स्थिर कुण्ड में उठनेवाली तरंगें हैं सांसारिक सुखों की हल्की तरंगें। शब्दों से परे, उस अवर्णनीय आनंद का ही अंग यह मूर्त आनंद भी है। इस आनंद के जरिए ब्रह्मानंद की झलक पाने का अहसास मुझे हुआ और मेरी अजीब हालत हुई। क्या हुआ, या हो रहा है यह मैं बता नहीं पा रहा हूं। आनंद की इस अनुभूति के बाद दुनियादारी से मेरा मन हट गया है, सांसार की ओर बरबस बढ़ते मेरे कदमों की चाल अपने आप थम गई है।
गर्भ में पलनेवाले जीव की पसंद माता की इच्छाओं में झलकती हैं। बिल्कुल उसी प्रकार हे विठ्ठला, तुम्हारे कारण मेरे मन में ब्रह्मानंद का जो भाव उत्पन्न हुआ वही मेरे मुख से प्रकट हो रहा है। मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति की भावना शब्दों का रूप लेकर मेरे होठों से प्रकट हो रही है। गर्भ और माता का जो रिश्ता है उसी तरह का रिश्ता तुम्हारे और मेरे बीच है। तुम हो ब्रह्मानंद और ब्रह्मानंद में उठनेवाली एक हल्की, सरसराती तरंग की तरह मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति से मिलनेवाला आनंद है। इस आनंद में मुझे ब्रह्मानंद की झलक मिली और मैं विभोर हो गया।
ब्रह्मानंद की झलक पाने का कारण बने विठ्ठल के प्रति तुकाराम के मन का कृतज्ञताभाव पूरे पद में अंतर्धारा बन कर बहता हुआ हम महसूस कर सकते हैं।
कृतज्ञता, भक्ति, आनंद ये सब सकारात्मक भावनाएं हैं जो जीवन में सकारात्मक ऊर्जा ले आती हैं। ब्रह्मानंद की झलक पाने के लिए मन में इन भावनाओं का होना अवश्यंभावी है।
और, आनंद की प्राप्ति के लिए, मेरी राय में उदारता की भावना भी उतनी ही आवश्यक होती है। ‘मैं’ को घेर कर खड़ी चहारदीवारी में बंद आत्मा को ब्रह्मानंद का अहसास हो पाना संभव नहीं है। सांसारिक सुख-दुःखों की, संकीर्णता की चहारदीवारी का घेरा आत्मा जब तोडती है तभी उसे असीम का अहसास और ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है। तुकाराम इसी ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। -©संध्या पेडणेकर
तुकाराम के आराध्य हैं विठ्ठल। विठ्ठल को संबोधित कर वह कह रहे हैं कि, जिसका कोई आरपार नहीं ऐसे ब्रह्मानंद के स्थिर कुण्ड में उठनेवाली तरंगें हैं सांसारिक सुखों की हल्की तरंगें। शब्दों से परे, उस अवर्णनीय आनंद का ही अंग यह मूर्त आनंद भी है। इस आनंद के जरिए ब्रह्मानंद की झलक पाने का अहसास मुझे हुआ और मेरी अजीब हालत हुई। क्या हुआ, या हो रहा है यह मैं बता नहीं पा रहा हूं। आनंद की इस अनुभूति के बाद दुनियादारी से मेरा मन हट गया है, सांसार की ओर बरबस बढ़ते मेरे कदमों की चाल अपने आप थम गई है।
गर्भ में पलनेवाले जीव की पसंद माता की इच्छाओं में झलकती हैं। बिल्कुल उसी प्रकार हे विठ्ठला, तुम्हारे कारण मेरे मन में ब्रह्मानंद का जो भाव उत्पन्न हुआ वही मेरे मुख से प्रकट हो रहा है। मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति की भावना शब्दों का रूप लेकर मेरे होठों से प्रकट हो रही है। गर्भ और माता का जो रिश्ता है उसी तरह का रिश्ता तुम्हारे और मेरे बीच है। तुम हो ब्रह्मानंद और ब्रह्मानंद में उठनेवाली एक हल्की, सरसराती तरंग की तरह मेरे मन में उपजी तुम्हारे प्रति भक्ति से मिलनेवाला आनंद है। इस आनंद में मुझे ब्रह्मानंद की झलक मिली और मैं विभोर हो गया।
ब्रह्मानंद की झलक पाने का कारण बने विठ्ठल के प्रति तुकाराम के मन का कृतज्ञताभाव पूरे पद में अंतर्धारा बन कर बहता हुआ हम महसूस कर सकते हैं।
कृतज्ञता, भक्ति, आनंद ये सब सकारात्मक भावनाएं हैं जो जीवन में सकारात्मक ऊर्जा ले आती हैं। ब्रह्मानंद की झलक पाने के लिए मन में इन भावनाओं का होना अवश्यंभावी है।
और, आनंद की प्राप्ति के लिए, मेरी राय में उदारता की भावना भी उतनी ही आवश्यक होती है। ‘मैं’ को घेर कर खड़ी चहारदीवारी में बंद आत्मा को ब्रह्मानंद का अहसास हो पाना संभव नहीं है। सांसारिक सुख-दुःखों की, संकीर्णता की चहारदीवारी का घेरा आत्मा जब तोडती है तभी उसे असीम का अहसास और ब्रह्मानंद की अनुभूति होती है। तुकाराम इसी ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। -©संध्या पेडणेकर
पद सुनिए लता मंगेशकर के स्वर में-
https://www.youtube.com/watch?v=tJWgy0uHkIM
https://www.youtube.com/watch?v=tJWgy0uHkIM