©संध्या पेडणेकर
‘श्यामची आई’ मराठी की बेहद लोकप्रिय किताब है। हाल ही में इस किताब का दिल्ली के प्रभात
प्रकाशन के लिए मैंने हिंदी में अनुवाद किया। महाराष्ट्र में 1950-60 के दशक में
14-15 वर्ष या उससे अधिक आयु का बिरला ही कोई मराठी पाठक होगा जिसने यह किताब ना
पढ़ी हो। तब किताबें इतनी सहूलियत से उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं। दूरदराज के गांवों
में लाइब्रेरी में लंबे समय तक इस किताब के लिए क्लेम लगाना पड़ता था। मैंने इसी
प्रकार यह किताब पढ़ी थी। औरों की तरह ही मैं भी बेहद प्रभावित हुई थी। मां और
बेटे के रिश्ते के बारे में हिंदी में आई मन्नू भंडारी जी की किताब ‘आपका बंटी’ ने भी मुझे उतना ही
प्रभावित किया था हालांकि ‘आपका बंटी’ का कैनवस और समय ‘श्याम की मां’ से अलग है। हिंदी में इसका शीर्षक मैंने ‘श्याम की मां’ ही दिया है। मूल कृति से
मिलता जुलता और एकदम आसान। मैं मानती हूं कि शब्दों को समझने में पाठकों को जितनी
कम मशक्कत करनी पड़ती है, वाक्यों के सिरे जितनी आसानी से उनकी समझ में आते हैं पाठक
किताब के कथ्य से उतनी ही आसानी से जुड़ पाते हैं। खैर।
10-12 वर्ष की कच्ची उम्र में आप जिस किताब से
प्रभावित होते हैं, ज़रूरी नहीं कि उम्र के 53-54 वें साल में भी वह किताब आपको
उसी तरह प्रभावित करे। उम्र के विभिन्न पडावों से, अलग अलग अनुभवों से होकर जब आप
गुजरते हैं तब बचपन की पसंद सपनीली और अवास्तविक लगने की संभावना अधिक होती है।
लेकिन ‘श्यामची आई’ किताब के साथ ऐसा नहीं हुआ। इतने लंबे अंतराल के बाद भी यह किताब मुझे बेहद
पसंद आई, प्रेरणादायक लगी हालांकि कुछ लोगों की राय है कि किताब बेहद सरल है, सपाट
और अतिभावुक ढंग से इसमें बातें सामने रखी गई हैं। सो मैंने सोचा, क्यों न इस बार
एक पाठक की नज़र से नहीं बल्कि एक समीक्षक की नज़र से परखूं।
‘श्याम की मां’ में जीवन की छोटी छोटी घटनाओं के जरिए लेखक ने एक नायक का
चित्र उकेरा है। ऐसा नायक जो सामान्य लोगों में से एक है। हालात के थपेडे खाते हुए
उसका जीवन बीतता है लेकिन अपने आदर्शों से किसी हाल में न डिगने की उसने ठान ली है।
बालबुद्धि के कारण तो कभी अनजाने उससे गलतियां होती हैं और हर बार मां उसे लक्ष्य की
राह पर वापस ले आती है। पुस्तक का शीर्षक मां होने और पूरी पुस्तक में मां की
महिमा का वर्णन किए जाने के बावजूद मेरी नज़र में इस चरित्रात्मक कथासंग्रह का
नायक श्याम ही है। कथासंग्रह की सारी घटनाएं उसीसे संबंधीत हैं। मां श्याम का
आदर्श ज़रूर है लेकिन घटनाएं श्याम के कारण ही घटित होती हैं और उन घटनाओं को सिला
देने के लिए मां है। इस कारण नायकत्व श्याम को देना ही मुझे उचित लगता है।
खुद लेखक ने यह बात दर्ज कर रखी है कि, 9 फरवरी
1933 को इस चरित्रात्मक कथासंग्रह के लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई और 13 फरवरी
1933 को उन्होंने किताब लिख कर पूरी की। उनके अनुसार इस किताब में जितनी भी
कहानियां हैं उनका मुख्य सूत्र ‘मां की महिमा’ ही है। मां की महिमा के साथ साथ उन्होंने भारतीय संस्कृति
का भी सादे, सरल शब्दों में मनोरम चित्रण किया है। इस किताब को प्रकाशित करने से
पूर्व साने गुरुजी ने ये कहानियां अपने कई परिचितों को पढ़ने दी थीं। पुस्तक पढ़
कर मां के बारे में अपने मन में जो सम्मान था वह कई गुना बढ़ने की बात उनके
परिचितों ने कही। उन्हीं की सलाह के अनुसार लेखक ने किताब प्रकाशित की और वह बेहद
लोकप्रिय भी साबित हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व लिखी गई इस किताब
का आज के जमाने में क्या औचित्य है?- कुछ लोगों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह प्रश्न
उपस्थित किया तब लग कि इस नजरिए से भी इस पुस्तक को देखना ज़रूरी है। वैसे तो समय
के साथ साथ इंसान से जुड़ी हर बात बदलती है, भाषा, सोच, नजरिया, रहन-सहन आदि आदि।
लेकिन जीवन से जुड़े कुछेक मूल्य कालातीत होते हैं। देखना होगा कि इस किताब में
वर्णित बातें कहां तक आज के समय में भी सार्थक सिद्ध होती हैं। यही सोच कर मैंने
अनुवाद की शुरुआत की थी और अनुवाद पूरा करते करते मुझे इसका जवाब ‘हां’ में मिला। मुझे मिले इसी
जवाब को मैं यहां शब्दों में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हूं।
मान्यताओं की नींव पर संस्कृति का निर्माण होता
है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए आदि
बातें स्पष्ट होते होते संस्कृति का रूप धारण करती हैं। हमारे जीने के ढंग को
सलीका देती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व के भारत और स्वतंत्रता प्राप्ति के
बाद इतने साल बीत जाने के बाद, प्रगति के नए नए शिखर पादाक्रांत कर चुके, विभिन्न
क्षेत्रों में अपनी श्रेष्ठता की छाप छोड चुके भारत के सामाजिक स्तर ने भले ऊंचाई
प्राप्त की हो, भारत आर्थिक रूप से संपन्न हुआ हो, सुविधाएं-सहूलियतें अधिक से
अधिक जनसामान्यों तक पहुंच रही हों लेकिन भारत की आत्मा अभी अक्षुण्ण है, वह नहीं
बदली। और कि, भारत की आत्मा आज भी संपन्नता से श्रेष्ठता को तरजीह देती है। मन की
सच्चाई, ईमानदारी, आपसी सहयोग, एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति, बड़ों के प्रति आदर,
बुरे का तिरस्कार जैसे मूलभूत नैतिक तत्वों को भारतीय समाज मन में अभी श्रेष्ठ
स्थान प्राप्त है। इन्हीं तत्वों की पैरवी करती है ‘श्याम की मां’। बयालीस कथाओं के जरिए लेखक ने इस पुस्तक में
बताया है कि श्याम के चारित्रिक विकास में श्याम की मां कैसे सहायक,
प्रेरणास्त्रोत बनी रही हैं।
किसी समय वैभवसंपन्न रहे जमींदारों के घर में
श्याम का जन्म हुआ। हालांकि, होश सम्हालते सम्हालते श्याम ने केवल दुख, अपमान सहते,
मेहनत-मजूरी करते अपने माता-पिता को ही देखा। इसके बावजूद श्याम के माता-पिता ने
कभी उसे उद्देश्यप्राप्ति के लिए हालात से, अपने सद्गुणों से, विवेकबुद्धि से
समझौता करना नहीं सिखाया। अपनी मां के बारे में अपने मित्रों को बताते हुए श्याम
कहता है- “मुझमें जो भी कुछ अच्छा है वह सब मेरी मां का है। मां ही मेरी गुरु है,
कल्पतरु है। प्रेम से देखना, बोलना, इन्सान ही नहीं प्राणियों, पक्षियों,
तितलियों, पेडों से प्रेम करना मां ने ही मुझे सिखाया। बेहद कष्ट में रह कर भी,
बिना किसी बात की शिकायत किए, अपना काम बेहतरीन ढंग से करते रहना सिखाया। दरिद्रता
में भी स्वाभिमान और नैतिकता गंवाए बिना कैसे रहें, सिखाया।” अपनी मां के बारे में श्याम
अपने मित्रों को जो बताता है वही सब इस पुस्तक में कथारूप में एकत्रित है। इन
कहानियों के जरिए उनके जीवन के कई प्रसंगों की और उन प्रसंगों में श्याम की मां के
आदर्श व्यवहार की बातें इस पुस्तक में हैं। ये आदर्श न तो दैवी हैं न अतिमानवी।
सामान्य जीवन की आम घटनाओं में कई बार जब परीक्षा के प्रसंग आते हैं तो व्यक्ति
किस प्रकार अपनी सद्विवेकबुद्धि के सहारे उनसे पार पाता है यही इन प्रसंगों से पता
चलता है। मसलन्,
मध्य या निम्न मध्यवर्ग के परिवारों में कई काम
घर के सदस्यों को ही करने पड़ते हैं। कई बार बच्चों को संकोच होता है कि हमें ये
काम करते हुए अगर हमारे मित्र या परिचित देखेंगे तो तो हमारी भद्द होगी, वे हम पर
हंसेंगे। ऐसा ही एक प्रसंग इस पुस्तक में है। बीमार मां अपना व्रत पूरा करने के
लिए श्याम से कहती है कि वह उनकी जगह बरगद के पेड की प्रदक्षिणाएं लगा कर उनका
सावित्री व्रत पूरा करे। श्याम सकुचाता है, तब वह कहती हैं – “मां का बताया हुआ, भगवान से
संबंधीत काम करने में शर्म कैसी? शर्म तो बुरा काम करने में आनी चाहिए!” मां की बातों से श्याम की
आंखें खुल जाती हैं और वह बरगद की प्रदक्षिणाएं लगा कर मां का व्रत पूरा करता है।
अच्छा नहीं, बुरा काम करने में शर्म आनी चाहिए, मां की बात माननी चाहिए – क्या आज
के जमाने में यह उपदेश कालबाह्य हो गया है?
इसी प्रकार अगले हर अध्याय में अलग अलग घटनाओं
के सहारे वह सामाजिक नैतिकता की कोई न कोई सीख पाठक को देते हैं। जैसे – दहेज पद्धति
बुरी है, अपनी खुशी हमेशा सबके साथ बांटनी चाहिए, कच्ची कलियों को तोड़ना नहीं –
खिलने का मौका देना चाहिए, सभी को आपस में मिल जुल कर सहभाव से रहना चाहिए, काम या
सांपत्तिक स्थिति से किसी व्यक्ति को आंकना नहीं चाहिए, सबके प्रति मन में सम्मान
का भाव रखना चाहिए, सबके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए, अपनी कर्तव्यभावना
या कर्तव्यतत्परता का बोझ दूसरों को महसूस न हो इसका खयाल रखना चाहिए, घर के काम
के बंटवारे में भेदभाव न हो, जिसके हाथ-पैर हैं वह सब काम कर सकता है, जो भी काम
करो मन लगा कर करो, झूठ ना बोलो, माता-पिता की बातें मानो, माता-पिता को
प्रसंगानुसार कभी कठोर तो कभी ममतामय बनना चाहिए, बेजुबान जानवरों से प्रेम करें,
उनका खयाल रखें, दूसरों के महल से अपनी कुटिया भली, घर प्रेम से ही बनता है,
भूतदया के साथ साथ समयसूचकता भी ज़रूरी है, बिना जानकारी के इलाज करने से जान भी
जा सकती है, बेटे के भले के लिए मां को समयानुसार बेहद कठोर भी होना पड़ सकता है,
श्रम में ही आत्मोद्धार है, मुफ्त देने और लेने में पतन है, जीने का अधिकार उसीको
है जो कुछ मंगल का निर्माण करता है, एकदूसरे की मदद के लिए हमें हमेशा तैयार रहना
चाहिए, चिल्ल-पों मचाने से - जोर शोर से भजन गाने से भगवान नहीं मिलते, दूसरों को
तकलीफ हो तो वह भजन कैसा? चोरी-चुगली-बुरी संगत-डर के कारण भागे नहीं, आत्मनिर्भर
बनें, किसीको हीन मान कर उसका अपमान ना करें, कृति बिना बोले सिखाती है, प्रत्यक्ष
उदाहरण से हम जो सीखते हैं वह सैंकडो व्याख्यान या भाषण सुन कर या किताबें पढ़ कर
नहीं सीख सकते, गुणवान इंसान को दुनिया चाहती है, प्रेम के बगैर इंसान जी नहीं
सकता, स्थिर और भरपूर प्रेम जीवन के वृक्ष का पोषण करता है, मोह का त्याग ही धर्म
है, गरीब का कोई नहीं होता, केवल वाहवाही बटोरने के लिए कोई काम ना करें, घर और
बाहर एक-सा व्यवहार रखें, गलतियां करने में कोई बड़प्पन नहीं, गलती हो तो उसे
सुधार लें, प्रेम में त्याग का मजा ही कुछ और है, पुरुषों को महिलाओं के और महलाओं
को पुरुषों के काम करना आना चाहिए, विवाह यानी हृदय और बुद्धि – भावना और विचारों
का मधुर मीलन, पुरुष के हृदय में स्त्री-गुणों का आना और स्त्री में पुरुषों के
गुण आना ही विवाह है, गरीबी में भी ऊंचे उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहा जा सकता
है, भगवान भेदभाव नहीं करता – उसे सभी समान रूप से प्रिय हैं, श्रेष्ठ-कनिष्ठ के
झूठे विवाद हमें गाड देने चाहिए, जो अपने भाई से प्रेम नहीं कर सकता वह किसीसे
प्रेम नहीं कर सकता, माता-पिता और भाई-बहनों के बारे में शर्म ना महसूस करो, चोरी
कभी ना करें, भगवान पर भरोसा रखना चाहिए, सामुदायिक कार्य में जितना कुछ कर सकते
हैं करें, मन में श्रद्धा रखें, कर्ज लेना नर्क का टिकट खरीदने जैसा है, किसान
पूरी दुनिया के लिए मेहनत करनेवाला गुलाम है, मानव का तिरस्कार करनेवाले नर नहीं
नराधम हैं, विद्यादेवि को प्रसन्न करवाकर गरीबी और दरिद्रता से उद्धार संभव है,
समयानुसार बदलने में ही भला है, अपनी जिद चलाने से किसीका फायदा नहीं होता आदि। जीवन
के ये शाश्वत तत्व कभी कालबाह्य नहीं हो सकते। इन्हीं तत्वों को समझाने के लिए यह
पुस्तक समर्पित है। हम इसे कैसे कालबाह्य ठहरा सकते हैं?
संक्षेप में लिखे इन नीति तत्वों से हो सकता है
किसीको लगे कि किताब बेहद रूखी, उपदेश भरे वाक्यों से भरी होगी। लेकिन ऐसा बिल्कुल
नहीं है। प्रसंगानुसार एकाध वाक्य में ये बातें कही गई हैं। सभी प्रसंग आम जीवन के
लेकिन पुराने समय-संदर्भों के हैं। हालांकि सभी संदर्भ अभी इतने पुराने नहीं हुए हैं कि उन्हें
एकदम से नकार दिया जाए। लोग आज भी भगवान की पूजा करते हैं, बच्चे आज भी
छात्रावासों में रह कर पढ़ते हैं, जेब गरम हो तो आज भी लोगों की नीयत बदल जाती है,
आज भी घर की महिलाओं में तू तू – मैं मैं होती है – बल्कि दोपहर में खास महिलाओं
के लिए प्रसारित किए जानेवाले टीवी कार्यक्रमों का यही सदाबहार विषय रहा है, बच्चे
(बल्कि कई बार बड़े भी) आज भी अपनी गलती के लिए औरों को जिम्मेदार ठहराते हैं, स्पर्धा
का भाव आज भी सबमें एक-सा दिखाई देता है... सो, ये संदर्भ किताब से जुड़ने में सहायक ही हैं। बचपन में
बच्चों को अच्छे-बुरे की पहचान कराना माता-पिता की जिम्मेदारी होती है। एक तरह से
घर ही बच्चों की पहली पाठशाला होती है और माता-पिता आद्य गुरु होते हैं। आधुनिकता की कई देनों में एक
देन यह भी है कि आज हर व्यक्ति टापू में बदलता जा रहा है, अच्छे-बुरे की ठीक से
जानकारी न होने के कारण समाज में कई बुरी घटनाएं घटती हैं, एक-दूसरे से जुड़ना, बुराई से बचना यह किताब सिखाती
है। इस तरह से किताब लाजवाब है। कई बार किसीके कहने से अधिक पढ़ी हुई बातें मन पर
अधिक असर करती हैं।
इस पुस्तक की एक और खासियत है – इसकी क्षेत्रीयता।
कोंकण के लोगों की जीवनशैली के इसमें बेहद अनूठे वर्णन हैं। वहां के खान-पान,
पहनावे, रीति-रिवाजों का चित्रण है। यहां के सुंदर, सांस्कृतिक जीवन की झांकियां हैं। प्रचलित रीति-रिवाजों
का वर्णन पढ़ते हुए कहीं कहीं कुछ बातें स्वीकारने में विज्ञाननिष्ठ बुद्धि के कारण हिचक होती है लेकिन
ऐसी बातें गिनी-चुनी हैं। हमें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि ये बातें हमारे
समाज का अंग रही हैं, आवाम की श्रद्धा के साथ इनका गहरा संबंध रहा है। इन्हें टाल कर हमारे समाज
का सही चित्रण संभव नहीं।
‘लाडघरचे तामस्तीर्थ’ कथा में इस पुस्तक के उद्देश्य के बारे में कथानायक श्याम
के एक मित्र राजा के मुंह से लेखक ने कहा है कि श्याम की ये कहानियां धर्म क्या है
बताती हैं। वह कहता है, “जिस प्रकार कृष्ण के छोटे से मुंह में यशोदा को विश्वरूपदर्शन
होते हैं उसी प्रकार इन छोटी छोटी कहानियों में संस्कृति और धर्म के विस्तृत दर्शन
होते हैं। यह कहानीमय धर्म है या धर्ममय कहानियां हैं। रोजमर्रा के जीवन में भी
हृदय में कितना आनंद घोला जा सकता है यही तुम दिखा रहे हो....।” हालांकि, ‘तीर्थयात्रार्थ पलायन’ जैसी कहानी में श्याम के
भागने का समर्थन करती मां के साथ सहमत होना मेरे लिए संभव नहीं भले श्याम (लेखक)
की नजर में वह सही हों। इस अपवाद को छोड़ दें तो पुस्तक के किसी और निष्कर्ष से
मुझे असहमति की कोई वजह दिखाई नहीं देती।
इस पुस्तक की भाषा इसकी बहुत बड़ी शक्ति है। बेहद
सरल, आसान भाषा है। कोई बिंब नहीं, सांकेतिकता नहीं, उपमा-उपमान भी एकाध हो तो हो।
इसे भाषा की ताकत कहा जा सकता है या जिन्हें साहित्यिक कृति में थोडी-बहुत
अलंकारिकता की उम्मीद हो वे इसे सपाटबयानी कह सकते हैं। मेरी राय में गद्य में
संप्रेषणीयता भाषा की एक कसौटी मानी जानी चाहिए और इस लिहाज से और अलंकरण से अधिक
बच्चा भी किताब को आसानी पढ़-समझ सके इस उद्देश्य को लागू करें तो इस पुस्तक की
भाषा में कोई खोट नहीं। भाषा की इसी सरलता से श्याम की मां जिन दुखपूर्ण स्थितियों
से गुजरती है, मां के दुख को महसूस कर श्याम का हृदय जो मौन बिलखता है, श्याम के
पिता की हताशा सीधे पाठक के हृदय पर आघात करती हैं।
सच है, आज जमाना बदल गया है, हम संपन्न हो गए
हैं। पालना घरों में बच्चों के और वृद्धाश्रमों में बूढ़ों के पलने के आज के एकल
परिवारवाले युग में न माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय और समर्पितता होती है और
न बच्चों के मन में माता-पिता के प्रति कृतज्ञता भाव और कर्तव्यभावना। निजी स्वतंत्रता की हदें दिनोंदिन बेहद धुंधली होती जा रही हैं।
स्वार्थ के आगे सहज प्रेम, वात्सल्य, अन्यों की सुरक्षा की भावनाएं भी मायने खोती
जा रही है। बच्चे, युवा, अधेड या
बूढ़े केवल उपभोक्ता बन कर रह गए हैं। जब तक बेचने-खरीदने की क्षमता है तभी तक
किसीका मूल्य है और यह मूल्य भी बाजार तय करता है, व्यक्ति नहीं। और यही बाजार एक
सीख भी देता है कि जो मूल्यहीन है वह कचरा है फिर वह चाहे इन्सान ही क्यों न हो।
इस कुविचार से आज की पीढ़ि को बचाने के लिए यह पुस्तक असरदार साबित हो सकती है।
किसीके भी प्रति सीमित लगाव रखने के चलनवाले आज
के युग में हो सकता है किसीको अपनी मां के प्रति श्याम के प्रेम का प्रकटीकरण बनावटी
या अत्युक्तिपूर्ण लगे। भाषा और भाषा के कारण भाव में बनावटीपन महसूस हो सकता है। ऐसा
अगर महसूस हो तो एक बात ज़रूर ध्यान में रखें कि, प्रेमभाव, अपनत्व की कमी के कारण
आज नाते-रिश्तों में सूखापन आने लगा है। परिवार की संस्था को बनाए रखने के लिए,
पारिवारिक रिश्तों-नातों को अहमियत देने की आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाने के लिए इन
भावनाओं को प्रोत्साहित करना ज़रूरी है। श्याम बेहद संवेदनशील है इसलिए अपनी मां
के प्रति उसके मन में प्रेम, आदर और कृतज्ञताभाव इतना तीव्र है। सामान्य
संवेदनशीलता वाले हृदय में भी यह भाव कुछ सीमित मात्रा में ही सही लेकिन होने तो
चाहिए ही। आज देश के सामने बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रमों के निर्माण का समाधान
स्पष्ट रूप धारण करता जा रहा है। ऐसे में उम्मीद है कि माता-पिता के प्रति
कृतज्ञता भाव निर्माण करनेवाली इस किताब का सुधी पाठकों से स्वागत ही होगा।