Friday, March 9, 2012

होली के बहाने


-संध्या पेडणेकर
सौंदर्य में शिव का भाव जब तक शामिल नहीं होता तब तक उसमें उदात्तता नहीं आती। मानव मन का स्थायीभाव शिवत्व की ओर ही झुकता है। यही बात हम होली के गीतों के बारे में भी कह सकते हैं। रसखान का यह पद देखिए,



खेलतु फाग लख्यौ पिय प्यारी कों ता सुख की उपमा किहीं दीजै। 
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै।।
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजे।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छाक सौं हेरै हंसे न टरै खरौ भीजे।



रीतिकाल के महान कवि रसखान यहां होली पर होनेवाले अपने आनंद का वर्णन कर रहे हैं। रसखान के इस पद में अनुठी कल्पना है और उस कल्पना को व्यक्त करने के लिए सुंदर शब्दरचना की गई है। पद में होली खेल रहे राधा-कृष्ण का सुंदर वर्णन है। वह कहते हैं, प्रिय की हर अदा प्यारी है। होली के दिन प्रिय को रंग खेलते देख कर जो सुख होता है उसको व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई उपमा नहीं है। इस दृश्य को देख कर मन को जिस सुख की अनुभूति होती है उसपर सब कुछ वार देने का मन होता है। छबीली राधा एक के बाद एक रंगभरी पिचकारियों से उन पर रंग उंडेल रही है, कहती जा रही है कि, लो यह और लो। राधा की पिचकारियों से निकलनेवाले रंगों की बौछार से अपने को बचा कर वहां से हट जाने के बजाय रंग खेलती राधा पर मोहित श्रीकृष्ण वहीं खड़े खड़े मुसकुराते हुए राधा को ताक रहे हैं और भीगते जा रहे हैं। हालांकि यह वर्णन पाठक को इस दृश्य से आगे नहीं ले जाता। श्रीकृष्ण और राधा के चरित्र के साथ अलौकिकता का जो गुण जुड़ा है वह इस पूरे पद में कहीं महसूस नहीं होता। उस गुण के अभाव में यह पद होली खेल रहे नायक-नायिका का वर्णन ही लगता है। सुंदरता में जब तक शिव का भाव नहीं जुड़ता तब तक उसमें वह उदात्तता नहीं आती जो भावों को सहज ही सौंदर्य की राह से शिव की तरफ मोड देती है। 
हालांकि, यहां इसे हम रसखान की कल्पना, भाषा या भाव की कमी नहीं कह सकते क्योंकि किसी भी कलाकृति की उसके समय से अलग रख कर समीक्षा नहीं की जा सकती। हर कलाकृति के संदर्भ हमें उस समय के परिवेश में मिलते हैं। रसखान उस दौर के कवि हैं जब पूरा समाज भौतिकता में लिप्त था। हिंदी काव्य का रीतिकालीन साहित्य ऐसे उदाहरणों से अटा पड़ा है। शब्दलालित्य है, भाषाई चमत्कार है, पूजनीय चरित्र हैं लेकिन भाव अक्सर भौतिक स्तर से ऊपर नहीं उठ पाते। इसलिए यहां श्रृंगार भक्ति की राह से होकर आध्यत्मिकता की ओर उन्मुख नहीं होता। वह केवल श्रृंगार तक ही सीमित होकर रह जाता है। भावों की अभिव्यक्ति अभिधा में ही सिमटी रह जाती है। मोटे तौर पर कहा जाए तो रसखान के इस पद में उस युग के साहित्य पर  हावी भौतिकता के ही दर्शन होते हैं। यहां राधा-कृष्ण का प्रेम लौकिकता की हदों में ही बंधा रह जाता है, उसमें राधा के मन में कृष्ण के प्रति जो आराध्य भाव था वह प्रतिबिंबित नहीं होता।

भक्तिकाल की रचनाएं भावों की अभिव्यक्ति में बेहद सशक्त लगती हैं।इस युग की रचनाएं जीवन की व्याख्या करती हुई सी लगती हैं। इस युग में लिखे होली के पदों में भी राधा-कृष्ण के चरित्र हैं। सगुण भक्ति धारा में श्रीकृष्ण भक्ति परंपरा में लिखा गया साहित्य भक्तिकालीन काव्यसाहित्य की अमूल्य थाती है। इनमें रूपमाधुरी, प्रेम, रास का वर्णन भी है। उनमें व्याप्त भाव की गहराई पाठकों को अलग धरातल पर ले जाती है। सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंददास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी, मीराबाई, सहजोबाई आदि कृष्णभक्ति शाखा के  प्रसिद्ध संत कवि माने जाते हैं। 
सगुण भक्ति की प्रेमाश्रयी शाखा की कवयित्री हैं मीराबाई। श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम और समर्पणभाव की मिसालें दी जाती हैं, हालांकि अपने समय में मीराबाई को न केवल समाज बल्कि अपने परिवार से भी विरोध का सामना करना पड़ा था। शायद इसी कारण उनके पदों में आध्यात्मिकता की एक अंतर्धारा अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित महसूस होती रहती है। उन्होंने अपने पदों में जो कुछ भी कहा उससे केवल कृष्ण के प्रति उनका प्रेम ही व्यक्त नहीं होता, जीवन के बारे में उनके विचार भी प्रकट होते हैं। होली से संबंधीत उनका एक पद है–

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥ 
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥
                                                                                  -भजन-संग्रह - गीताप्रेस, गोरखपुर 

 मीराबाई यहां कहती हैं, हे मेरे मन, फागुन केवल दो-चार दिन का है, इसलिए आओ, होली खेल कर इसका आनंद उठाएं। फागुन की इस होली में मन ऐसा रम जाएगा कि बिना झांझ-मंजीरे, पखावज के अनहद की आवाज अंतरात्मा से उठने लगेगी। रोम रोम अनुराग से विभोर हो गाने लगेगा। प्रेम की पिचकारी में आनंद का केसरिया रंग भर की बरसात से सारा आकाश लाल हो गया है। चारों ओर उसी लाल रंग की बरसात हो रही है। प्रेम की बरसात में भीगते हुए लोकलाज आडे न आए इसलिए हमने औपचारिकताओं के सारे द्वार खोल दिए हैं, संकोच त्याग दिया है। हे गिरिधारी, मीरा आपके चरणों में लीन है। 
मीरा के अन्य सभी पदों की तरह ही इस पद की माधुरी भी मन पर छा जाती है। शब्द ही नहीं,  इन शब्दों के बीच से बहती भावसरिता पाठक के मन को स्पर्श करती है और पाठक उसमें डूब कर मानो पार पा जाता है।
यहां मीरा फागुन के बहाने जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में बता रही हैं। वह कहती हैं – जीवन चार दिनों का है। उसे हंसी-खुशी जीना चाहिए। जागरुक मन को हर पल अनहद का नाद सुनाई देता है, अनहद की इस झनकार को करताल, झांज-मंजीरे की ज़रूरत नहीं। यह अप्रकट सुर प्रकृति से होकर सीधे व्यक्ति के रोम रोम में उतर आता है। बिना आवाज ही उस अप्रकट की महत्ता के छत्तीसों राग अलापता रहता है। यह अहसास दिलाता है कि जीवन बस चार दिनों का है। उस परमात्मा को भुला कर जगत की माया में फंसना नहीं। शील और संतोष रूपी केसरिया रंग को  प्रेम की पिचकारी में भर उसकी बरसात करते रहना चाहिए। प्रेम के इस लाल रंग से फैलनेवाली लाली चहूं ओर, आकाश तक छा जाएगी और लौट कर वही आपके पास आएगी। मीरा कहती है, मन जब इस बात के प्रति जागरुक हुआ तो उस परमात्मा से मिलन के लिए मैंने औपचारिकता के सारे द्वार खोल दिए। इस राह पर चलने से रोकनेवाले रीति-रिवाजों को तोड़ा, लोकलाज से पार पाई। जीवन के फागुन में हो रही प्रभुभक्ति की इस बरसात से विभोर मैं गिरधर के चरणों में झुक गई। 

भक्तिकाल की एक और संत कवयित्री सहजोबाई के पद में भी कुछ कुछ ऐसे ही भाव व्यक्त होते हैं। होली पर आधारित इस पद में वह काल की, मृत्यु की अपरिहार्यता से पार पाने का मार्ग बताती हैं –

"साधो भौसागरके माहि काल होरी खेलाई।।
भांति-भांति के रंग लिये हैं, करत जीवनकी घात।
बूढा बाला कछू न देखै, देखै ना दिन रात।।
निहचै मौत लिए संग रानी, नाना रंग सम्हार।
बड़े बड़े अभिमानी नामी, सो भी लीन्हे मार।।
सूरज चंद वा भयते कांपै, स्वर्ग माहि सब देव।
तनधारी सब ही थर्रावै, ज्ञानी जानत भेव।।
आपनकूँ देही नहिं जानै, जानत आतम सांच।
                                         चरनदास कह सहजोबाई ताहि न आवै आंच।।"भजन-संग्रह - गीताप्रेस, गोरखपुर