Sunday, February 5, 2012

आइए, मुखौटों से छुट्टी कर लें!


-संध्या पेडणेकर
चुनाव खत्म होने के तुरंत बाद किसी प्रमुख अखबार के मुखपृष्ठ पर छपा एक व्यंग्यचित्र हमेशा चुनावों की सरगर्मियों में मुझे याद आता है। उस व्यंग्यचित्र में मंत्रीजी की चुटकी ली गई थी - चुनाव खत्म होने पर वे एक कुर्सी पर अधलेटे आराम फरमा रहे थे।  पीछे अलगनी पर चुनाव में प्रयोग में लाए गए कई मुखौटे सूख रहे थे। लोगों के सामने जाते हुए हर मंत्री जो मुखौटा धारण करते हैं वह चुनाव के बाद उतार दिया जाता है यही उस व्यंग्यचित्र से स्पष्ट हो रहा था। लेकिन क्या सिर्फ मंत्री ही मुखौटाधारी जीवन जीते हैं? सुबह जो चेहरा लेकर हम नींद से जागते हैं, क्या वही पारदर्शी चेहरा दिनभर आम आदमी के कंधे पर होता है? क्या आजकल आमजन भी मुखौटे ओढ़ कर नहीं जीते? घर का, दफ्तर का, व्यक्तिविशेष का, भीड के हिस्से का, खिला हुआ, पतियाया हुआ.... किसम किसम के मुखौटों से क्या हमारा पर्सनल वॉर्डरोब अटा नहीं है? हमारे मुखौटे - जिनके डिज़ाइनर भी हम खुद होते हैं; और इन मुखौटों के नीचे होता है - बिन चेहरे का आदमी।

सही है कि, रोजमर्रा की भगदड में आजकल आदमी अपने आप से भी बिछड जाता है। दिन भर कामकाज के सिलसिले में वह जिन जिनसे मिलता है उनके सामने उनके मुआफिक चेहरे पेश करते करते वह इतना उलझ जाता है कि शाम होते होते अपनी पहचान भुला बैठता है। मजदूर, ड्राइवर, बाबू, बॉस, सहयोगी, दोस्त, दुश्मन, पति, पत्नी, सास, देवर, भाई, बहन, चाचा, नाती, पोता, नेता.... भूमिका निभाते निभाते व्यक्ति उस भूमिका को निभानेवाले समाज में इस कदर खो जाता है कि आखिर उसीका एक अंश मात्र बन कर रह जाता है। भेडों की झुंड का एक भेड हो जैसे। किसी पेड़ के नीचे आराम से हाथ का तकिया बना कर ख़यालों में खोई भेड़ की कल्पना हम नहीं कर सकते क्योंकि हमारी रूढ़ मान्यताएं हमें बताती हैं कि भेड़ ऐसी नहीं हो सकती। पता नहीं भेड़े कभी सोचती भी हैं या नहीं लेकिन आदमी तो सोचता है। क्यों नहीं दिनभर में कभी वह अपने जैसा हो सकता? थोड़ी देर के लिए ही सही?

पुराने मकान के पास, हमारे पडोसवाले घर में एक अस्सी साल के बुजुर्ग व्यक्ति रहा करते थे। एक दिन सुबह सुबह ही वह सीटी बजाते हुए नाई के यहां गए और उन्होंने फैशनवाला हेयरकट करवाया। फिर अपने जवान पोते के रंगबिरंगी, चलती फैशन के चंट कपडे पहने, आंखों पर काला चश्मा लगाया, स्पोर्ट शूज पहने और म्युजिक सिस्टम चला दिया। फुल वॉल्यूम पर ताजा रीमिक्स का कैसेट लगा कर वह थिरकने लगे। घर के सभी लोग अचंभित थे कि आज इन्हें क्या हो गया। सबको लगभग यकीन हो चला था कि उन पर पागलपन का दौरा पडा है। तभी घर का सबसे छोटा सदस्य, चार साल का उनका पड़पोता उनके सामने जाकर खड़ा हुआ। परदादा को उसने हाथ से रुकने का इशारा किया। वे रुक गए तो उसने पूछा, दादाजी, क्या मैं आपके साथ नाच सकता हूं?’ परदादा का यह रूप उसने बड़ी सहजता से स्वीकारा क्योंकि मुखौटों वाली दुनिया में अभी उसने कदम नहीं रखा था।

आदमी ने अब मुखौटों को इसकदर अपना लिया है कि उसे किसी किस्म का अपराधबोध नहीं होता। मुखौटों के कारण उसे अब कोई असुविधा भी महसूस नहीं होती, बल्कि, मुखौटा ओढ़े रहने में उसे अब सुविधा और बड़ी सहूलियत महसूस होती है। अब उसे आदत हो गई है मुखौटों की आड़ से अपनी मर्जी चलाने की। मुखौटों की मर्जी में सुविधाएं ढूंढी जाती हैं। मुखौटों की नीति अपनी चमडी बचाने की होती है। अंतर में पैठना या अपनी पहचान बनाए रखना मुखौटों की दुनिया में असुविधाजनक होता है। इसीलिए मुखौटों के साथ कई विरोधाभास भी पलते हैं। पुत्र की भूमिका में आदर्श मुखौटा पति की भूमिका में मगरूर हो सकता है। बॉस की गलती को मरी मक्खी की तरह गटक जाने की आदत मुखौटों को पड़ जाती है लेकिन सब्जीवाले से दो रुपयों के लिए ठन जाती है। छाती ठोंक कर झूठ परोसने में नेताओं के मुखौटों को महारथ हासिल होती है। ग़लत और गैरज़रूरी दवाओं का नुस्खा लिख कर दवा कंपनी का फायदा और अपनी जेब गरम करने में डॉक्टरी मुखौटों को कोई गुरेज नहीं होता। खुद की जानकारी की कमी को बिना दूर किए महीने-दर-महीने तनख्वाह लेते समय शिक्षक के मुखौटे पर कोई सल नहीं पड़ता। ये तो बस कुछेक ही उदाहरण हुए। दुख के साथ कहना पडेगा कि यहां कोई आदमी मुखौटे की नाप से बाहर नहीं है। खानदानी इज्जत का मुखौटा ओढ़े लोगों को अपने खून का कतल करने में कोई आनाकानी नहीं होती। बनी बनाई कुछ मान्यताएं हैं जिनके आगे जैसे आदमी हार गया है, उन्हीं को वह खुदा मानने लगा है। हर कोई इस खयाल में जीता है कि वह इस समाज का एक हिस्सा है और सामाजिक बनने की कीमत चुकाने के लिए मुखौटा ओढ़ना बेहद ज़रूरी है। जरा सी चूक और उसके सारे खोल झर जाएंगे। व्यक्ति कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं करता कि इन खोलों के नीचे वह क्या है? उसकी अपनी मर्जी क्या है? सही-ग़लत, सच-झूठ के बारे में उसके अपने पैमाने क्या कहते हैं? किसी व्यक्ति विशेष के बारे में उसकी अपनी राय क्या है?

घपला यह है कि अपने आप से अपरिचित व्यक्ति सहज ही प्रवाहपतित होता है। एक बार प्रवाहपतित होने के बाद अपनी पहचान खोज पाना और भी कठिन होता है। प्रवाहपतित होने में वह अपनी पहचान टटोलने लगता है क्योंकि, उस स्थिति में भी वह मुखौटों से अलग नहीं होता। सीधी डगर पर चलनेवाले व्यक्ति के साथ भी उम्र के साथ कई मुखौटे और खोल जुड़ते जाते हैं। व्यक्ति काइयां बनता जाता है।

क्या हम ऐसी स्थिति से उबर नहीं सकते? क्या हमें अपने आपको खोजना नहीं चाहिए? क्या हम कभी मुखौटे झाड़ कर अपनी ही उंगली पकड़ कर, अपने पर भरोसा कर चल नहीं सकते? ऐसे पारदर्शी व्यक्तित्व के कदम जहां भी पड़ें क्या वहां की सृष्टि भी नई नहीं होगी? क्या वहां का आकाश भी नया नहीं होगा?

आइए, एक बार फिर खोज निकालें ऐसी सृष्टि जहां किसीको मुखौटे या खोल की ज़रूरत न पड़े। आइए, मुखौटों से एकबारगी छुट्टी कर लें!