हाल में दिल्ली में घटी घटना ने मेरी
ही तरह हो सकता है कइयों की संवेदनाओं को सुन्न कर दिया हो।
ऐसी समस्या का उपाय केवल और केवल
समाजप्रबोधन ही हो सकता है इस बारे में मेरे मन में कोई दो राय नहीं। समाजप्रबोधन
के साथ खुद व्यक्ति का मन भी जागृत हो और हर कोई सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए अपने
आप से प्रतिज्ञाबद्ध रहे। मैं मानती हूं कि वर्तमान स्थितियां रातोंरात पैदा नहीं
हुई हैं और इन समस्याओं से पार पाने के कोई तुरंत-फुरंत के टोटके उपलब्ध होना भी
असंभव ही है। नई हेल्पलाइन की बात ही लीजिए-
आज टाइम्स ऑफ इंडिया में पढा कि इस
हेल्पलाइन पर मदद नहीं मिलती। महिलाओं के लिए शुरू की गई नई हेलपलाइन 181 को
टाइम्स ऑफ इंडिया की तीन प्रतिनिधियों द्वारा जांचा गया। अपने अनुभवों से उन्होंने
जाना कि यह नंबर केवल खानापूर्ती के लिए ही बने हैं। किसी भी तरह के संकट में फंसी
महिला द्वारा कॉल किए जाने पर दूसरी तरफ से सलाह यही दी जाती है कि आप पहले 100
नंबर पर कॉल कीजिए या कि, आप पहले पुलिस से मदद मांगिए। वहां से मदद न
मिलने पर दुबारा कॉल कीजिए वगैरा। क्या संकट में फंसी महिला के पास इतनी फुर्सत
होती होगी कि वह मदद के लिए बने हर स्त्रोत की जांच करते हुए अपने लिए सही मददगार
को तलाशे? कई बार तो एक कॉल करना भी खतरनाक स्थितियों में
फंसी महिला के लिए असंभव होता है। इसलिए ऐसे कॉल की आपातकालीन गंभीरता का रिस्पांस
केवल और केवल तुरंत मदद मुहैया होना ही हो सकता है। सवाल यह है कि क्या यह संभव है?
वर्तमान स्थितियों में इसका जवाब, मुझे लगता है ‘नहीं’ ही होगा।
दूसरा सवाल यह कि, फिर सरकार ऐसे उपाय क्यों करती
है?
हो सकता है मानने में थोडी कोफ्त हो, लेकिन ऐसे
उपायों की घोषणा करना सरकार की मजबूरी तब बन जाती है जब जनता सरकार के गले पर सवार
होकर समस्या के लिए उसे जिम्मेदार ठहराते हुए उसके लिए तुरंत उपाय लागू करने की
मांग करती है। रोते हुए बच्चे को झुनझुना थमा कर बहलाने जैसे उपाय फिर सरकार की
तरफ से लागू किए जाते हैं जिनके लिए अपरोक्ष रूप से जुनून पर उतरी जनता ही
जिम्मेदार होती है।
आयुर्वेद मानता है कि शरीर किसी रोग के लक्षण जब
व्यक्त करता है तब वह उस रोग का शिकार नहीं बनता बल्कि लंबे समय तक बरती गई
उपेक्षाओं के और की गई ज्यादतियों के परिणामस्वरूप शरीर बीमारी के आगे घुटने टेकता
है। तुरंत इलाज कर रोग के लक्षणों पर काबू पाया जा सकता है लेकिन जड़ से मुक्ति
पानी हो तो उस रोग के कारणों को तलाश कर उनका शमन करना पड़ेगा। किसी नौसिखुए
द्वारा तुरंत इंजक्शन लगाकर पुराने रोग पर काबू करने की बात झोलाछाप डॉक्टर के
इलाज की तरह केवल अंधविश्वासियों को ही झांसे में ले सकती है। जड़ जमा चुके रोगों
पर प्लेसिबो दवाइयां शायद ही असर करें। तकनालाजी का उपयोग कर समस्याओं को सुलझाना तब तक दोधारी
तलवार ही साबित होता रहेगा जब तक हम तकनालाजी को पूरी तरह जाने बगैर उसे दुहने की
कोशिश करते रहेंगे। बेशक हेल्पलाइन शुरू करना बेहतर उपाय साबित हो सकता है लेकिन
केवल एक फोन नंबर मुहैया करा कर और उस फोन के सिरे पर किसी व्यक्ति को बिठा कर
हेल्पलाइन की कारगरता सिद्ध नहीं हो पाएगी। एक हेल्पलाइन शुरू करने के लिए पहले सभी
संबंधीत विभागों का ब्यौरा इकठ्ठा करना पडेगा, संकटों का वर्गीकरण कर तुरंत किस
प्रकार की मदद मुहैय्या कराना अत्यावश्यक है इसका फैसला करना और उन सभी संबंधीत
विभागों में ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए विशेष प्रबंध करने होंगे, आनेवाली
कॉलों का गंभीरता के आधार पर वर्गीकरण करते हुए वरीयता क्रम तय करने की सूझबूझ कॉल
लेनेवाले व्यक्ति में पैदा करनी होगी और डिस्ट्रेस कॉल को सीधे अटेंड करने की कोई
ब्लैक कैट कमांडोज जैसी वर्कफोर्स बनानी होगी।
संक्षेप में, इन सभी कामों में समय लगता है।
निहायत ईमानदारी से काम करनेवालों के लिए भी कुल स्थितियों का जायजा लेकर उसका वर्गीकरण
करते हुए सभी विभागों को परस्पर जुड़ी कड़ियों में पिरोते हुए एक ढ़ांचा खड़ा कर
उसे कार्यरत करने में समय लगता है। लोगों को चाहिए कि इस बात को वे समझे। सरकार को
ऐसी ठोस दिशा में काम करने के लिए वे मजबूर करे और इस काम के लिए ज़रूरी मदद देने
के लिए भी तैयार रहें। जनता के सहयोग के बिना सरकार गिर सकती है यह अगर सही है तो
एक और बात भी उतनी ही खरी है कि नता के
सहयोग के बिना सरकार कोई काम कर भी नहीं सकती। इसलिए सरकारी योजनाओं के सहयोग के
लिए जनता को हमेशा तैयार रहना चाहिए। राह से भटकती सरकार को राह पर लाने का जिम्मा
भी जनता का ही है और इसीलिए प्रजातांत्रिक समाज व्यवस्था में जनता का जिम्मेदार
होना भी निहायत जरूरी होता है।
साथ ही, यहां एक और बात ध्यान में रखना ज़रूरी
है, सामाजिक मूल्यों में गिरावट के लिए सरकार नहीं खुद समाज, समाज के विभिन्न घटक
जिम्मेदार होते हैं। जिस तरह का समाज होता है उसका प्रतिनिधित्व सरकार करती है न
कि इसका उलटा। इसलिए, किसी और को वर्तमान हालात के लिए जिम्मेदार ठहराने से पहले
समाज अपने गिरेबान में एक बार ज़रूर झांके।
कितने लोग आज सीना ठोंक कर कह सकते हैं कि हम
अपनी प्रगति के लिए किसी और को नुकसान पहुंचाए बिना, पूरी ईमानदारी से कोशिश
करेंगे। जायज मार्गों से जितनी प्रगति हासिल कर पाएंगे उतने में संतोष करेंगे और
किसी गलत मार्ग से आगे बढ़ने के छोटे रास्ते नहीं तलाशेंगे। आज हर किसीको आगे
बढ़ने की, जिंदगी से बहुत कुछ पाने की जल्दी मची हुई है और इस होड में दांव पर लगी
है इंसानियत। जिनके पास है वे और कमाना चाहते हैं, जिनके पास बहुत है वे और बहुत
कुछ पाना चाहते हैं और जिनके पास कुछ नहीं है जाहिर है वे कुछ पाने की इच्छा पालते
हैं। ऐसे में, जब जो जितना चाहते हैं उन्हें उतना न मिलने पर उनमें उपजनेवाली
कुंठा जाए तो कहां?
मरहमपट्टी कर अब यह रोग ठीक होने से रहा, कुंठाएं
पैदा न हों इसके लिए समाजमन को लगे घुन का जड़ से इलाज करना अब ज़रूरी हो गया है। और
यह इलाज सरकार, सरकार का कोई महकमा, समाजसेवा का व्रत लेनेवाली संस्थाएं केवल अपने
बल पर अकेले नहीं कर सकते। इसके लिए पूरे समाज को संगटित होकर कोशिश करनी होगी।
किसी और ने क्या किया इसका हिसाब लगाने से पहले खुद क्या कर सकते हैं यह सोचना
होगा।
मुझे लगता है, केवल महिलाओं पर अत्याचार की नहीं,
यह पतनोन्मुख समाज की समस्या है। दबंगों द्वारा कमजोरों के शोषण की यह समस्या है। पर
चूंकि बात महिला पर हुए अत्याचार से शुरू हुई है तो इसी मुद्दे के संदर्भ में कहना
चाहूंगी कि भारत में पैदा होनेवाली हर लड़की की सुरक्षितता की जिम्मेदारी पुलिस या
सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था नहीं ले सकती। जितने मामले प्रकाश में आ रहे हैं उनसे
समाज को लगे इस घुन की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। जिस तेजी से समाज पतन
की ओर उन्मुख हो रहा है उतनी तेजी से हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था का अपडेट होते
रहना असंभव है। इसलिए, आज सबसे पहले महिलाओं के सक्षम बनने की ज़रूरत है। महिलाओं
को सक्षम बनाने के लिए समाज के अपने को अनुकूल बनाने की ज़रूरत है। समाजमन को यह
स्वीकार करना करना होगा कि प्रकृति के आंगन में पुरुष और महिला अगर भिन्न हैं तो
केवल एक दूसरे के लिए पूरक सिद्ध होने के लिए, अन्यथा दोनों नस्लों में कोई भेद
नहीं। समान मौके मिलने मिलने पर दोनों नस्लों में एक सी सहायक और आक्रामक होने की
क्षमताएं मौजूद हैं। भलाई इसीमें है कि एकदूसरे के पूरक बन कर विधायक कार्यों के
लिए समर्पित रहें।
आइए, मिल कर शपथ लें कि स्वस्थ समाज बनाने के लिए आज से हम प्रतिबद्ध हैं।
आइए, मिल कर शपथ लें कि स्वस्थ समाज बनाने के लिए आज से हम प्रतिबद्ध हैं।