-संध्या पेडणेकर
हमारे धर्मग्रंथों में लिखा है कि हमेशा सत्य की ही विजय होती है। हमारे ऋषिमुनियों और पैगंबरों ने हमेशा यही बताया कि सत्य की राह कभी मत छोड़ो, अंततः वही जीतता है। हमारे राष्ट्रीय चिह्न - चार दिशाओं की ओर देखते चार मुखों वाले सिंह की प्रतिमा के नीचे एक वाक्य लिखा रहता है, 'सत्यमेव जयते!' यह भारत के शासन का सूत्र वाक्य है। छोटे छोटे सिक्कों, रुपयों और शासन से संबंधित चिठ्ठियों पर मुद्रित यह चिह्न हमारे दिलो-दिमाग में यह बैठाने की कोशिश करता है कि आखिर सत्य की ही विजय होती है। लेकिन, सत्य है क्या?
सत्य की एक आसान परिभाषा है कि आंखों से देखते हैं वही सत्य है। सत्य को छिपाने की ज़रूरत नहीं होती, इसीलिए सत्य शिव है और शिव हमेशा सुंदर ही होता है। लेकिन सवाल केवल यही नहीं कि सत्य क्या है - बल्कि सवाल यह भी है क्या आज के जीवन में वह कोई महत्व भी रखता है?
ज्यादातर लोग कहेंगे कि सत्य का सिक्का अब किसी दुकान पर नहीं चलता। सत्य का अब कोई कद्रदान नहीं। आज सत्य की किसीको आवश्यकता नहीं। अब सत्यमेव जयते जिन कागज़ के टुकडों पर छपा रहता है, सिर्फ उन टुकड़ों की आवश्यकता होती है। तो क्या आज सचमुच सत्य निरर्थक और अनावश्यक हो गया है?
थोड़ा ग़हराई से सोचें तो ध्यान में आएगा कि समस्या सत्य की नहीं है, समस्या हमारी सोच की है। इसी वजह से आज महसूस होता है कि सत्य का अस्तित्व मिटता जा रहा है। यह समस्या सत्य की नहीं, हमारी नकारात्मक सोच की है, हमारे शब्दों की है।
वैसे, शब्द अपने आप में निरर्थक होते हैं। शब्दों को हम अर्थ देते हैं। इसलिए वे व्यक्तिसापेक्ष भी होते हैं। हाथी और चार अंधों की कहानी हम सबने सुनी है। उस कहानी में हाथी के अलग अलग अंगों को स्पर्श कर हर अंधा अपने लिए हाथी का एक अलग सत्य गढ़ लेता है। हर किसीको अपना ही सत्य प्रामाणिक भी लगता है। लेकिन जो देख सकता है वह जानता है कि हाथी का सत्य कुछ और ही है। उस सत्य को पूरी तरह से जानने के लिए दो आंखों की ज़रूरत है, जोकि उनके पास नहीं हैं। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक समाज में दृष्टिवान के सत्य से अंधों के सत्य को कोई ठेस नहीं पहुंचती। हर कोई अपने अपने सत्य के साथ आराम से जी सकता है।
इस उदाहरण से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली बात यह कि, वस्तु नहीं बल्कि मानस पर पड़ी उसकी छवि सत्य या असत्य होती है। दूसरी बात यह कि, एक ही वस्तु के अलग अलग रूप हो सकते हैं और हमारे मानस पर उनकी अलग अलग छवियां हो सकती हैं। जैसे कि कानों से सुनी शेर की दहाड और आंखों से देखी शेर की तस्वीर। विभिन्न इंद्रियों से प्राप्त प्रमाणों तथा बुद्धि के उपयोग से ही हम इस विश्व को समझने की कोशिश करते हैं।
सत्य की खोज में एक प्रश्न और उठता है कि क्या इंद्रियों से प्राप्त प्रमाणों के अलावा भी कोई प्रमाण मान्य होने चाहिए? बुद्धि की ही तरह क्या हमारी भावनाएं भी प्रामाणिक नहीं होतीं? मन की अनुभूति को प्रमाण के रूप में स्वीकार करने के संबंध में बहुत लंबी बहस चली है। जो मन की प्रामाणिकता को नहीं मानते उनकी दलील होती है कि मन के पास बुद्धि जैसी निष्पक्षता नहीं होती। वह सत्य को अपनी इच्छा के रंगों में रंग कर ही देखता है। इसलिए उसके द्वारा दिए गए प्रमाणों को सत्य के रूप में स्वीकारा नहीं जा सकता। इस तरह सत्य को खोजनेवालों के दो वर्ग हो जाते हैं। भारतीय विचारधारा में दोनों वर्ग के विचारकों को सम्माननीय स्थान प्राप्त है।
भारतीय मानस में सत्य की एक प्रतिष्ठा है। लोग इस शब्द और उसकी अवधारणा से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। इसी कारण इस शब्द के साथ जुड़े शब्दों की एक पूरी पलटन प्रचलित है - जैसे, सद्गुरु, सज्जन, सद्गति, सदाचार आदि। इसलिए हमें सत्य को दार्शनिक अर्थ में भी समझना होगा।
हमारे धर्मग्रंथों में लिखा है कि हमेशा सत्य की ही विजय होती है। हमारे ऋषिमुनियों और पैगंबरों ने हमेशा यही बताया कि सत्य की राह कभी मत छोड़ो, अंततः वही जीतता है। हमारे राष्ट्रीय चिह्न - चार दिशाओं की ओर देखते चार मुखों वाले सिंह की प्रतिमा के नीचे एक वाक्य लिखा रहता है, 'सत्यमेव जयते!' यह भारत के शासन का सूत्र वाक्य है। छोटे छोटे सिक्कों, रुपयों और शासन से संबंधित चिठ्ठियों पर मुद्रित यह चिह्न हमारे दिलो-दिमाग में यह बैठाने की कोशिश करता है कि आखिर सत्य की ही विजय होती है। लेकिन, सत्य है क्या?
सत्य की एक आसान परिभाषा है कि आंखों से देखते हैं वही सत्य है। सत्य को छिपाने की ज़रूरत नहीं होती, इसीलिए सत्य शिव है और शिव हमेशा सुंदर ही होता है। लेकिन सवाल केवल यही नहीं कि सत्य क्या है - बल्कि सवाल यह भी है क्या आज के जीवन में वह कोई महत्व भी रखता है?
ज्यादातर लोग कहेंगे कि सत्य का सिक्का अब किसी दुकान पर नहीं चलता। सत्य का अब कोई कद्रदान नहीं। आज सत्य की किसीको आवश्यकता नहीं। अब सत्यमेव जयते जिन कागज़ के टुकडों पर छपा रहता है, सिर्फ उन टुकड़ों की आवश्यकता होती है। तो क्या आज सचमुच सत्य निरर्थक और अनावश्यक हो गया है?
थोड़ा ग़हराई से सोचें तो ध्यान में आएगा कि समस्या सत्य की नहीं है, समस्या हमारी सोच की है। इसी वजह से आज महसूस होता है कि सत्य का अस्तित्व मिटता जा रहा है। यह समस्या सत्य की नहीं, हमारी नकारात्मक सोच की है, हमारे शब्दों की है।
वैसे, शब्द अपने आप में निरर्थक होते हैं। शब्दों को हम अर्थ देते हैं। इसलिए वे व्यक्तिसापेक्ष भी होते हैं। हाथी और चार अंधों की कहानी हम सबने सुनी है। उस कहानी में हाथी के अलग अलग अंगों को स्पर्श कर हर अंधा अपने लिए हाथी का एक अलग सत्य गढ़ लेता है। हर किसीको अपना ही सत्य प्रामाणिक भी लगता है। लेकिन जो देख सकता है वह जानता है कि हाथी का सत्य कुछ और ही है। उस सत्य को पूरी तरह से जानने के लिए दो आंखों की ज़रूरत है, जोकि उनके पास नहीं हैं। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक समाज में दृष्टिवान के सत्य से अंधों के सत्य को कोई ठेस नहीं पहुंचती। हर कोई अपने अपने सत्य के साथ आराम से जी सकता है।
इस उदाहरण से दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली बात यह कि, वस्तु नहीं बल्कि मानस पर पड़ी उसकी छवि सत्य या असत्य होती है। दूसरी बात यह कि, एक ही वस्तु के अलग अलग रूप हो सकते हैं और हमारे मानस पर उनकी अलग अलग छवियां हो सकती हैं। जैसे कि कानों से सुनी शेर की दहाड और आंखों से देखी शेर की तस्वीर। विभिन्न इंद्रियों से प्राप्त प्रमाणों तथा बुद्धि के उपयोग से ही हम इस विश्व को समझने की कोशिश करते हैं।
सत्य की खोज में एक प्रश्न और उठता है कि क्या इंद्रियों से प्राप्त प्रमाणों के अलावा भी कोई प्रमाण मान्य होने चाहिए? बुद्धि की ही तरह क्या हमारी भावनाएं भी प्रामाणिक नहीं होतीं? मन की अनुभूति को प्रमाण के रूप में स्वीकार करने के संबंध में बहुत लंबी बहस चली है। जो मन की प्रामाणिकता को नहीं मानते उनकी दलील होती है कि मन के पास बुद्धि जैसी निष्पक्षता नहीं होती। वह सत्य को अपनी इच्छा के रंगों में रंग कर ही देखता है। इसलिए उसके द्वारा दिए गए प्रमाणों को सत्य के रूप में स्वीकारा नहीं जा सकता। इस तरह सत्य को खोजनेवालों के दो वर्ग हो जाते हैं। भारतीय विचारधारा में दोनों वर्ग के विचारकों को सम्माननीय स्थान प्राप्त है।
भारतीय मानस में सत्य की एक प्रतिष्ठा है। लोग इस शब्द और उसकी अवधारणा से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। इसी कारण इस शब्द के साथ जुड़े शब्दों की एक पूरी पलटन प्रचलित है - जैसे, सद्गुरु, सज्जन, सद्गति, सदाचार आदि। इसलिए हमें सत्य को दार्शनिक अर्थ में भी समझना होगा।
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