©संध्या पेडणेकर
(उसी दिन लिखे जाने के बावजूद प्रकाशित करने में हुई देर के लिए क्षमाप्रार्थना के साथ-)
(उसी दिन लिखे जाने के बावजूद प्रकाशित करने में हुई देर के लिए क्षमाप्रार्थना के साथ-)
16दिसंबर2012 से 13सितंबर2013
दिल्ली गैंग रेप और इस केस का फैसला।
किसी अपराध के घटित होने के बाद इतने कम समय में फांसी जैसा फैसला आने का अपने देश का यह शायद इकलौता उदाहरण हो।
फैसले की इस चुस्ती का श्रेय अगर जाता है तो देश के युवाओं को, देश के सजग मीडिया को, हमारी न्यायव्यवस्था को और पुलिस को।
विश्व के बड़े और पुराने प्रजातंत्र की जनता अब सयानी हो चली है इसकी यह निशानी है। बहरहाल, अपराधियों को दी गई सजा पर अमल होने में अभी कुछ और समय लगेगा। उम्मीद करते हैं कि अपराध की अमानुषिकता और जघन्यता को ध्यान में रखते हुए जल्द से जल्द बलात्कार और हत्या के इस मामले को अंजाम तक पहुंचाया जाएगा।
मुझे लगता है कि, यह कोई जीत मनाने का अवसर नहीं है। यह आत्मपरीक्षण का समय है। इस देश के कुछ प्रतिशत पुरुषों के महिलाओं के प्रति दृष्टिकोन पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का, उनकी हिंस्त्र मानसिकता में बदलाव कैसे लाया जा सकता है यह सोचने का और महिलाओं के मन में सुरक्षितता का भाव जगाने का यह समय है। समाज में रहनेवालों के सामाजिक सरोकारों को जगाने का यह समय है।
यह अपराध जब घटित हुआ था तब समूचा देश थर्राया था, वेदनाविह्वल हुआ था और गुस्से से उफन पड़ा था। समय के साथ भावनाओं की वह तीव्रता भौंथराई। इतनी, कि फैसला आया तो तुरंत बचाव पक्ष के वकील ने कोर्ट से बाहर आकर निषेधार्ह ऐलान किया। उनका ऐलान इसलिए निषेधार्ह है क्योंकि उन्होंने देश की न्यायपालिका पर पक्षपात का आरोप किया। न्यायालय ने सरकार के दबाव के तहत सजा सुनाई यह उनका आरोप था। सुनाई गई सजा पर आगे अपील करने के बारे में उन्होंने घोषणा की कि अगर अगले दो महीनों में दिल्ली में कोई रेप की वारदात नहीं होती तो वे अपील नहीं करेंगे। रेप की एकाध घटना भी हो तो वे अपील करेंगे। उनका वक्तव्य न्यायपालिका द्वारा दिए गए न्याय का अनादर करता है, जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। आगे, इसी संदर्भ से जुडे एक और प्रसंग में उन्होंने अपनी बेटी या बहन को पेट्रोल डाल कर जलाने की भी बात कही।
महिलाओं को निशाना बनाने की एक सामाजिक मानसिकता - जो बचाव पक्ष के वकील के इन वक्तव्यों में भी दिखाई देती है - के खिलाफ असल में हमें लड़ना है। इसी मामले को लीजिए, कैसा विरोधाभास है देखिए, महिला की इज्जत को हमारे देश में, संस्कृति में बेहद संवेदनशील स्थान प्राप्त है। लेकिन उस पर जब प्रहार होता है तब वह देश या संस्कृति की नहीं केवल शिकार स्त्री की बात हो जाती है। उसके महिला होने को ही अपराध का जिम्मेदार ठहराया जाता है। अधिकतर बलात्कार के मामलों में शिकायत दर्ज करने में भी पीडिता को कितनी जद्दोजहद करनी पडती है, कितनी जिल्लतों से होकर गुजरना पड़ता है। यही वजह है कि अत्याचार के कई मामले दर्ज ही नहीं हो पाते। पीडिता को ही जिम्मेदार ठहराने की समाज की मानसिकता, उसी पर अपराध को साबित करने की जिम्मेदारी डालने, पहले पुलिस अधिकारियों और फिर वकीलों की अवमानकारी और बेहद पीडादायी जिरह का सामना करने पर मजबूर करनेवाली न्यायव्यवस्था के कारण ऐसे अधिकतर मामले प्रकाश में नहीं आते, आते हैं तो थानों में दर्ज नहीं हो पाते, दर्ज होते हैं तो उन पर कार्रवाई नहीं होती, कार्रवाई होती है तो वे कार्ट में टिक नहीं पाते और अपराधी छूट कर फिर पीडिता के मन में दहशत पैदा करने के लिए जमानत पर छूट जाते हैं। केस चलता रहता है। पीडिता को और उसके परिवार को प्रताडित करनेवाले की और समाज की और न्यायव्यवस्था की तिहरी मार झेलते हुए न्याय पाने का इंतजार करना पड़ता है जो कई बार उसके पक्ष में होता भी नहीं। फिर ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां आरोपी ने सजा से बचने की कोशिश में पीडिता से ब्याह रचाने प्रस्ताव रखा। बलात्कार जैसे अपराध से शुरू हुए रिश्ते का भविष्य क्या होगा यह सोचने की बात है। कुछ मामले ऐसे भी प्रकाश में आए हैं जहां समाज के जिम्मेदार लोगों द्वारा पीडिता को ऐसे प्रस्तावों पर सोचने के लिए कहा गया।
इन सभी विरोधाभासों के पीछे हमारे समाज की जो मानसिकता है उसमें बदलाव लाने की ज़रूरत है। घुडसवारी करते हुए, तेजी से दौडते हुए, उछलकूद करते हुए या ऐसी कुछ अन्य शारीरिक गतिविधियों में जो भंग हो जाता है उस कौमार्य को लेकर 21वीं सदी में भी हमारा समाज इतना संवेदनशील क्यों है? समाज के कई कार्यक्षेत्रों में आज महिलाएं पुरुषों की बराबरी में काम करती हैं, कई क्षेत्रों में वे उनसे आगे निकल गई हैं। क्या यह समाज के लिए गर्व की बात नहीं है? उसकी ये उपलब्धियां समाज से उसके प्रति सम्मान क्यों नहीं बटोर पातीं? क्या कौमार्य एक स्थिति नहीं है? और क्या स्थितियां बदलती नहीं रहतीं? बदलने के कारण अलग अलग हो सकते हैं। दुर्घटनाएं भी स्थितियों में परिवर्तन की जिम्मेदार होती हैं। क्या बलात्कार दुर्घटना नहीं है? कार एक्सीडेंट, बस एक्सीडेट, रेल दुर्घटना, मशीनी दुर्घटना या अन्य किसी भी दुर्घटनाओं की तरह अगर यह भी एक दुर्घटना है तो फिर समाज इस दुर्घटना का प्रति इतना पूर्वाग्रहग्रस्त क्यों है? किसी भी अन्य दुर्घटना से ग्रस्त व्यक्ति के प्रति समाज की जो तटस्थ सहानुभूति होती है वही बलात्कार पीडिता के प्रति जब तक समाज में नहीं पनपती तब तक उस समाज को स्वस्थ नहीं कहा जा सकता।
समाज को स्त्री के तथाकथित इज्जत को ही उसका चरित्र मानने से उबरना चाहिए। बलात्कार जैसे अपराधों में स्त्री पीडित होती है, समाज उसी को अपराधी क्यों समझे? दूसरी और अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह कि, विवाह ही स्त्री के जीवन की इतिकर्तव्यता है और विवाह के लिए कन्या का कुंवारी होना अवश्यंभावी है यह मानना अब कालबाह्य हो जाना चाहिए।
ताकदवान कमजोरों पर अपनी ताकत आजमाते ही हैं यह दलील बेमानी है। यह पशुओं के जीवन का नियम हो सकता है। इंसान कब का उस स्तर को लांघ कर आया है। उसे प्रतिगामी नहीं होना चाहिए। और यहां सवाल ताकत का भी नहीं है। दृष्टिकोण का है। यह दृष्टिकोण बदलना ज़रूरी है। महिला के साथ बलात्कार अपराध है जो पुरुष को एक बार फिर पशु की जमात में शामिल करता है। बलात्कार के अपराधी को सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन, सोचने की बात यह है कि क्या केवल सजा सुनाने से सुधार लाया जा सकता है? नहीं, सजा से डर पैदा किया जा सकता है जिससे कि अपराधी मानसिकता का दमन संभव हो। लेकिन दमन से कोई मसला हल नहीं हो सकता। अपराध की ओर झुकनेवाली मानसिकता में बदलाव लाना, समाजमान्य धारणाओं का बार बार मूल्यांकन होते रहना, सभी जीव समान होते हैं और कमजोरों की रक्षा करने की जिम्मेदारी सामान्यों की होती है इसका सबको अहसास कराना इससे पार पाने का उपाय हो सकता है। सही है, फिलहाल यह यूटोपियन दलील ही है। हमें सोचना इस तर्ज पर है कि कई युटोपियन मामले इंसान वास्तव में उतारने में कामयाब रहा है, फिर यह क्यों नहीं?
हमें यह बात भी ध्यान में लेनी होगी कि डर के कारण कभी अपराधों में कमी नहीं आती है। इसीलिए, सजा की भयंकरता से अपराधी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात असरदार नहीं हो सकती। गलत मनोवृत्ति के कारण, गलत धारणाओं के कारण अपराध होते हैं। उन्हें बदलने के लिए, मनोवृत्ति में सुधार लाने के लिए सजा का प्रावधान होना चाहिए। धारणाओं को बदलने के उपाय सोचे जाने चाहिए। कुछ लोगों की दलील यह हो सकती है कि जघन्य और अमानुषिक मामले - जैसे कि निर्भया का मामला - इसके लिए अपवाद होने चाहिएं। अर्थात, ऐसे मामलों में मृत्यु के अलावा और कोई दंड योग्य नहीं हो सकता, अपराधी की उम्र कोई भी हो। निर्भया के मामले में प्रकाश में आया है कि सबसे अधिक बर्बरता सबसे कम उम्र वाले अपराधी ने बरती थी। इसलिए उसे सजा में रियायत नहीं दी जानी चाहिए। कुछ हद तक इस दलील में दम तो है, खास कर यह सोचने पर ऐसा लगना स्वाभाविक है कि बाल सुधार गृह में उसके संपर्क में आनेवाले अन्य बच्चों की धारणाओं पर उसकी संगत का असर हो सकता है। बाहर आने के बाद एक बार फिर वह अपनी हिंस्त्र मनोवृत्ति का परिचय दे सकता है और तब समाज का एक और मासूम सदस्य उसके कुकर्मों की बलि चढ़ सकता है। ऐसे में, उसके छूट जाने के बाद उस की गतिविधियों प र कुछ सालों तक निगरानी रखने का प्रावधान जरूर रखा जाना चाहिए।
न्यायदान की और सजा की तामिली की व्यवस्था में हमें और सुधार लाना होगा ताकि बदलते समाज में अपराधियों की बदलती मानसिकता को समझ कर हम उनके साथ भी उनके इंसान होने की बात को ध्यान में रखते हुए और जीने के उनके अधिकार का अतिक्रमण न करते हुए उन्हें सजा सुना सकें और उस सजा को भुगतने के बाद वे एक सजायाफ्ता अपराधी की तरह नहीं बल्कि सुधरे हुए, सामान्य इंसान की तरह फिर से समाज में जीवनयापन करने में काबिल हो।
मेरी राय में, अगर पुरुष अपने को स्त्री से श्रेष्ठ मानता है तो उसे और अपने एक सदस्य की जिम्मेदारी नैतिकता से उठाते हुए पूरे समाज को महिलाओं के सम्मान की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। अपराधों से निपटने के लिए बनाई गई व्यवस्था में शामिल हर व्यक्ति को संवेदनशीलता बरतनी चाहिए।
और, लाख टके की बात यह कि, अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद महिला को भी लेनी चाहिए। तुरंत उपाय के तहत स्कूली शिक्षा से ही सभी छात्रों के लिए आत्मसुरक्षा का गहन प्रशिक्षण आवश्यक और अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। सामाजिक मर्यादाओं का प्रशिक्षण भी अनिवार्य रूप से सभी छात्रों को दिया जाए ताकि कमजोर की सुरक्षा की जिम्मेदारी का भाव सभी के मन में जागृत हो। जाहिर है, इसके लिए हमें अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव लाने होंगे। विज्ञान, गणित, भूगोल, संगीत, नाट्य, सूचना तकनीक आदि की अधुनातनता से कदम मिलाने के लिए क्या हमने अपने आपको समय के अनुकूल नहीं ढाला?
आइए, अब हम मानवीयता के साथ कदम मिला कर चलना सीखें। यकीनन इसमें भी हम दुनिया में मिसाल कायम कर सकते हैं।
यह अपराध जब घटित हुआ था तब समूचा देश थर्राया था, वेदनाविह्वल हुआ था और गुस्से से उफन पड़ा था। समय के साथ भावनाओं की वह तीव्रता भौंथराई। इतनी, कि फैसला आया तो तुरंत बचाव पक्ष के वकील ने कोर्ट से बाहर आकर निषेधार्ह ऐलान किया। उनका ऐलान इसलिए निषेधार्ह है क्योंकि उन्होंने देश की न्यायपालिका पर पक्षपात का आरोप किया। न्यायालय ने सरकार के दबाव के तहत सजा सुनाई यह उनका आरोप था। सुनाई गई सजा पर आगे अपील करने के बारे में उन्होंने घोषणा की कि अगर अगले दो महीनों में दिल्ली में कोई रेप की वारदात नहीं होती तो वे अपील नहीं करेंगे। रेप की एकाध घटना भी हो तो वे अपील करेंगे। उनका वक्तव्य न्यायपालिका द्वारा दिए गए न्याय का अनादर करता है, जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। आगे, इसी संदर्भ से जुडे एक और प्रसंग में उन्होंने अपनी बेटी या बहन को पेट्रोल डाल कर जलाने की भी बात कही।
महिलाओं को निशाना बनाने की एक सामाजिक मानसिकता - जो बचाव पक्ष के वकील के इन वक्तव्यों में भी दिखाई देती है - के खिलाफ असल में हमें लड़ना है। इसी मामले को लीजिए, कैसा विरोधाभास है देखिए, महिला की इज्जत को हमारे देश में, संस्कृति में बेहद संवेदनशील स्थान प्राप्त है। लेकिन उस पर जब प्रहार होता है तब वह देश या संस्कृति की नहीं केवल शिकार स्त्री की बात हो जाती है। उसके महिला होने को ही अपराध का जिम्मेदार ठहराया जाता है। अधिकतर बलात्कार के मामलों में शिकायत दर्ज करने में भी पीडिता को कितनी जद्दोजहद करनी पडती है, कितनी जिल्लतों से होकर गुजरना पड़ता है। यही वजह है कि अत्याचार के कई मामले दर्ज ही नहीं हो पाते। पीडिता को ही जिम्मेदार ठहराने की समाज की मानसिकता, उसी पर अपराध को साबित करने की जिम्मेदारी डालने, पहले पुलिस अधिकारियों और फिर वकीलों की अवमानकारी और बेहद पीडादायी जिरह का सामना करने पर मजबूर करनेवाली न्यायव्यवस्था के कारण ऐसे अधिकतर मामले प्रकाश में नहीं आते, आते हैं तो थानों में दर्ज नहीं हो पाते, दर्ज होते हैं तो उन पर कार्रवाई नहीं होती, कार्रवाई होती है तो वे कार्ट में टिक नहीं पाते और अपराधी छूट कर फिर पीडिता के मन में दहशत पैदा करने के लिए जमानत पर छूट जाते हैं। केस चलता रहता है। पीडिता को और उसके परिवार को प्रताडित करनेवाले की और समाज की और न्यायव्यवस्था की तिहरी मार झेलते हुए न्याय पाने का इंतजार करना पड़ता है जो कई बार उसके पक्ष में होता भी नहीं। फिर ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां आरोपी ने सजा से बचने की कोशिश में पीडिता से ब्याह रचाने प्रस्ताव रखा। बलात्कार जैसे अपराध से शुरू हुए रिश्ते का भविष्य क्या होगा यह सोचने की बात है। कुछ मामले ऐसे भी प्रकाश में आए हैं जहां समाज के जिम्मेदार लोगों द्वारा पीडिता को ऐसे प्रस्तावों पर सोचने के लिए कहा गया।
इन सभी विरोधाभासों के पीछे हमारे समाज की जो मानसिकता है उसमें बदलाव लाने की ज़रूरत है। घुडसवारी करते हुए, तेजी से दौडते हुए, उछलकूद करते हुए या ऐसी कुछ अन्य शारीरिक गतिविधियों में जो भंग हो जाता है उस कौमार्य को लेकर 21वीं सदी में भी हमारा समाज इतना संवेदनशील क्यों है? समाज के कई कार्यक्षेत्रों में आज महिलाएं पुरुषों की बराबरी में काम करती हैं, कई क्षेत्रों में वे उनसे आगे निकल गई हैं। क्या यह समाज के लिए गर्व की बात नहीं है? उसकी ये उपलब्धियां समाज से उसके प्रति सम्मान क्यों नहीं बटोर पातीं? क्या कौमार्य एक स्थिति नहीं है? और क्या स्थितियां बदलती नहीं रहतीं? बदलने के कारण अलग अलग हो सकते हैं। दुर्घटनाएं भी स्थितियों में परिवर्तन की जिम्मेदार होती हैं। क्या बलात्कार दुर्घटना नहीं है? कार एक्सीडेंट, बस एक्सीडेट, रेल दुर्घटना, मशीनी दुर्घटना या अन्य किसी भी दुर्घटनाओं की तरह अगर यह भी एक दुर्घटना है तो फिर समाज इस दुर्घटना का प्रति इतना पूर्वाग्रहग्रस्त क्यों है? किसी भी अन्य दुर्घटना से ग्रस्त व्यक्ति के प्रति समाज की जो तटस्थ सहानुभूति होती है वही बलात्कार पीडिता के प्रति जब तक समाज में नहीं पनपती तब तक उस समाज को स्वस्थ नहीं कहा जा सकता।
समाज को स्त्री के तथाकथित इज्जत को ही उसका चरित्र मानने से उबरना चाहिए। बलात्कार जैसे अपराधों में स्त्री पीडित होती है, समाज उसी को अपराधी क्यों समझे? दूसरी और अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह कि, विवाह ही स्त्री के जीवन की इतिकर्तव्यता है और विवाह के लिए कन्या का कुंवारी होना अवश्यंभावी है यह मानना अब कालबाह्य हो जाना चाहिए।
ताकदवान कमजोरों पर अपनी ताकत आजमाते ही हैं यह दलील बेमानी है। यह पशुओं के जीवन का नियम हो सकता है। इंसान कब का उस स्तर को लांघ कर आया है। उसे प्रतिगामी नहीं होना चाहिए। और यहां सवाल ताकत का भी नहीं है। दृष्टिकोण का है। यह दृष्टिकोण बदलना ज़रूरी है। महिला के साथ बलात्कार अपराध है जो पुरुष को एक बार फिर पशु की जमात में शामिल करता है। बलात्कार के अपराधी को सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन, सोचने की बात यह है कि क्या केवल सजा सुनाने से सुधार लाया जा सकता है? नहीं, सजा से डर पैदा किया जा सकता है जिससे कि अपराधी मानसिकता का दमन संभव हो। लेकिन दमन से कोई मसला हल नहीं हो सकता। अपराध की ओर झुकनेवाली मानसिकता में बदलाव लाना, समाजमान्य धारणाओं का बार बार मूल्यांकन होते रहना, सभी जीव समान होते हैं और कमजोरों की रक्षा करने की जिम्मेदारी सामान्यों की होती है इसका सबको अहसास कराना इससे पार पाने का उपाय हो सकता है। सही है, फिलहाल यह यूटोपियन दलील ही है। हमें सोचना इस तर्ज पर है कि कई युटोपियन मामले इंसान वास्तव में उतारने में कामयाब रहा है, फिर यह क्यों नहीं?
हमें यह बात भी ध्यान में लेनी होगी कि डर के कारण कभी अपराधों में कमी नहीं आती है। इसीलिए, सजा की भयंकरता से अपराधी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात असरदार नहीं हो सकती। गलत मनोवृत्ति के कारण, गलत धारणाओं के कारण अपराध होते हैं। उन्हें बदलने के लिए, मनोवृत्ति में सुधार लाने के लिए सजा का प्रावधान होना चाहिए। धारणाओं को बदलने के उपाय सोचे जाने चाहिए। कुछ लोगों की दलील यह हो सकती है कि जघन्य और अमानुषिक मामले - जैसे कि निर्भया का मामला - इसके लिए अपवाद होने चाहिएं। अर्थात, ऐसे मामलों में मृत्यु के अलावा और कोई दंड योग्य नहीं हो सकता, अपराधी की उम्र कोई भी हो। निर्भया के मामले में प्रकाश में आया है कि सबसे अधिक बर्बरता सबसे कम उम्र वाले अपराधी ने बरती थी। इसलिए उसे सजा में रियायत नहीं दी जानी चाहिए। कुछ हद तक इस दलील में दम तो है, खास कर यह सोचने पर ऐसा लगना स्वाभाविक है कि बाल सुधार गृह में उसके संपर्क में आनेवाले अन्य बच्चों की धारणाओं पर उसकी संगत का असर हो सकता है। बाहर आने के बाद एक बार फिर वह अपनी हिंस्त्र मनोवृत्ति का परिचय दे सकता है और तब समाज का एक और मासूम सदस्य उसके कुकर्मों की बलि चढ़ सकता है। ऐसे में, उसके छूट जाने के बाद उस की गतिविधियों प र कुछ सालों तक निगरानी रखने का प्रावधान जरूर रखा जाना चाहिए।
न्यायदान की और सजा की तामिली की व्यवस्था में हमें और सुधार लाना होगा ताकि बदलते समाज में अपराधियों की बदलती मानसिकता को समझ कर हम उनके साथ भी उनके इंसान होने की बात को ध्यान में रखते हुए और जीने के उनके अधिकार का अतिक्रमण न करते हुए उन्हें सजा सुना सकें और उस सजा को भुगतने के बाद वे एक सजायाफ्ता अपराधी की तरह नहीं बल्कि सुधरे हुए, सामान्य इंसान की तरह फिर से समाज में जीवनयापन करने में काबिल हो।
मेरी राय में, अगर पुरुष अपने को स्त्री से श्रेष्ठ मानता है तो उसे और अपने एक सदस्य की जिम्मेदारी नैतिकता से उठाते हुए पूरे समाज को महिलाओं के सम्मान की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। अपराधों से निपटने के लिए बनाई गई व्यवस्था में शामिल हर व्यक्ति को संवेदनशीलता बरतनी चाहिए।
और, लाख टके की बात यह कि, अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद महिला को भी लेनी चाहिए। तुरंत उपाय के तहत स्कूली शिक्षा से ही सभी छात्रों के लिए आत्मसुरक्षा का गहन प्रशिक्षण आवश्यक और अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। सामाजिक मर्यादाओं का प्रशिक्षण भी अनिवार्य रूप से सभी छात्रों को दिया जाए ताकि कमजोर की सुरक्षा की जिम्मेदारी का भाव सभी के मन में जागृत हो। जाहिर है, इसके लिए हमें अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव लाने होंगे। विज्ञान, गणित, भूगोल, संगीत, नाट्य, सूचना तकनीक आदि की अधुनातनता से कदम मिलाने के लिए क्या हमने अपने आपको समय के अनुकूल नहीं ढाला?
आइए, अब हम मानवीयता के साथ कदम मिला कर चलना सीखें। यकीनन इसमें भी हम दुनिया में मिसाल कायम कर सकते हैं।