©-संध्या पेडणेकर
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी के सिद्धहस्त साहित्यकार विष्णु वामन शिरवाडकर ने मराठी साहित्य को अपनी कविताओं, नाटकों, कथाओ, उपन्यासों, निबंधों से समृद्ध किया है।
आम आदमी के मन की व्यथा, करुणा, उछाह, क्रोध, चैतन्य, आशावाद, जीजिविशा आदि को
कुसुमाग्रज ने अपने काव्य में व्यक्त किया है।
कुसुमाग्रज बनाम तात्या का मूल नाम गजानन रंगनाथ शिरवाडकर था। बचपन में ही तात्या को उनकी
एक चाची ने गोद लिया था। तब उन्हें एक नया नाम मिला – विष्णु वामन शिरवाडकर। प्रारंभिक
शिक्षा के लिए छह साल कुसुमाग्रज अपने मामा के घर नासिक में रहे। उनके मामा- राजाराम
वामन जानोरकर कवि थे। यहीं से कुसुमाग्रज में पढ़ने-लिखने के प्रति
रुचि निर्माण हुई।
1925 के आसपास बच्चों की पढ़ाई के लिए तात्या के पिता पिंपलगांव से नासिक आए। तात्या
उस वक्त कॉलेज में पढ़ते थे इसलिए उनकी पढ़ाई के लिए अलग से कमरा लिया गया। उस
कमरे का तात्या के साहित्यिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। इसी कमरे में रात रात
भर जाग कर उन्होंने साहित्य का अध्ययन किया। उनके हित्य की गंगोत्री का पद उसी
कमरे को है। उस छोटे से कमरे कमरे में दरी पर बायरन, माधव ज्यूलियन की तस्वीरें
सजा कर रखी तीं। एक और सिलसिले में इस कमरे का महत्व है। पुणे में कुछ कवियों ने
मिल कर ‘रविकिरण मंडल’ की स्थापना
की थी। इस मंडल का मराठी साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उस मंडल के
अनुकरण में नासिक के इसी कमरे में 1931 से 1933 के दरमियान ‘ध्रुवमंडल’ की स्थापना
हुई। इस मंडल की एक मात्र स्मृति अब उनके पास बची है। उनका प्रथम काव्यसंग्रह ‘जीवनलहरी’। इस मंडल के
सदस्यों में प्रो जोगलेकर, स वा केलकर, माधव मनोहर, द रा पोल, गोपालदास खरे आदि
लोग थे।
1935 में बी ए होने के पश्चात तात्यासाहब ने सरकारी या गैरसरकारी किसी भी तरह
की नौकरी न करने का अपना निर्णय घर में बताया। घर के लोग चिंतित हुए। उस दौरान
उनके घर की माली हालत भी ठीक नहीं थी। फिर भी बेटे के निर्णय का पिता ने विरोध
नहीं किया। बेटे के अलग व्यक्तित्व को उन्होंने पहचान लिया था। तब तक तात्या की
कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं में छपने लगी थीं।
नौकरी न करने के तात्यासाहब के निर्णय से घर के लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ
लेकिन उनके फिल्म जगत में काम करने की इच्छा से घर के सभी लोगों को चौंका दिया। फिल्म
के नायक बनने की तात्यासाहब की इच्छा थी। फिल्म जगत के आदिपुरुष नासिक के श्री
दादासाहब फालके के शिष्यों में से श्री मामा शिंदे के साथ तात्यासाहब ने नासिक में
‘गोदावरी
सिनेटोन’ कंपनी की
स्थापना की। लेखन कार्य की पूरी जिम्मेदारी तात्यासाहब ने संभाली। गोदावरी सिनेटोन
की पहली फिल्म थी ‘सती सुलोचना’। इस फिल्म की कथा तात्यासाहब ने लिखी थी। साथ ही साथ
उन्होंने फिल्म में लक्ष्मण नाम के चरित्र की भूमिका भी निभाई थी। फिल्म चली नहीं।
फिर, इसी क्षेत्र में यश कमाने की मंशा लेकर मामा शिंदे के साथ तात्या मुंबई आए।
मुंबई में तात्या तथा मामा शिंदे लैमिंग्टन रोड के चुनाम लेन की संकरी गली की
एक बिल्डिंग के एक चोटे से कमरे में रहते थे। उस कमरे की तथा उस समय तात्यासाहब की
मुफलिसी केवल एक ही बात से साफ जाहिर होती है कि उस वक्त उनके पास पानी पीने के
लिए भी कोई बर्तन नहीं था। ऐसी हालत से ऊब कर मामा शिंदे तकदीर आजमाने मद्रास की
ओर रवाना हुए। लेकिन तात्यासाहब ने मुंबई को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। और यहीं रह
कर साहित्यसृजन में लगे रहे।
आठ दस महीनों की बेकारी के बाद एडवोकेट सं सा दौंडकर के साप्ताहिक ‘सारथी’ में तात्या ने
सहसंपादक की हैसियत से काम संभाला। तनख्वाह पचास रुपयों के आसपास थी जिसमें उनका
महीने का खर्चा भी बड़ी मुश्किल से चलता था। ‘सारथी’ ने तात्या को पत्रकार बनाया।
इस शुरुआत के बाद लगभग बाह सालों तक तात्या इसी व्यवसाय में रहे। ‘सारथी’ डेढ़-दो
सालों तक चला। उसके बाद तात्या पुणे चले गए। पुणे
वालचंद कोठारी की दैनिक पत्रिका ‘प्रभात’ में वह तीन सालों तक उपसंपादक रहे। इसी दरमियान बंगाल के
दमदम जेलखाने में कुछ राजबंदी आमरण अनशन पर थे। उनकी हालत गंभीर होने की खबर आई
थी। उस खबर का अनुवाद करते समय कवि के मन में भावों का तूफान आया जिसके
परिणामस्वरूप पिछले पचास सालों से मराठी मन को क्रांति का संदेश देकर जागृत
करनेवाली कविता ‘गर्जा जयजयकार क्रांतीचा गर्जा जयजयकार’ का जन्म हुआ। ‘प्रभात’ के बाद पुणे के ही डॉ परुलेकर के प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘स्वराज्य’ में सालों तक रहे। फिर मुंबई लौट कर प्रभाकर पाध्ये
के साथ ‘धनुर्धारी’ में काम
किया। पाध्ये और तात्या ने अंग्रेजी के ‘नवयुग’ में भी साथ साथ काम किया। मुंबई छोड़ नासिक जाने के बाद स्व
श्री रमाकांत वेलदे के साथ ‘स्वदेश’ नामक साप्ताहिक पत्रिका शुरू की। इस पत्रिका के बंद होने
के साथ साथ तात्यासाहब के जीवन का पत्रकारिता का अध्याय भी समाप्त हुआ। उनके जीवन
का यह पूरा कालखंड बड़ा कष्टमय रहा। इस काल में लिखी उनकी कविताओं में इसका स्पष्ट
प्रतिबिंब दिकाई देता है। अपने तथा आसपास के लोगों की असहायता तथा मजबूरी, उसका
सामाजिक संदर्भ जानने-समझने में पत्रकारिता का यह कालखंड उपयोगी सिद्ध हुआ।
1941 से 1946 के दरमियान दादर की हिंदू कॉलनी के भालचंद्र रोड़ पर ‘चारूसदन’ बंगले के
आऊटहाऊस के एक कमरे में तात्या रहा करते थे। इसी दौरान पाध्ये और उनके बीच अटूट
रिश्ता निर्माण हुआ। ‘ज्योत्स्ना’ मासिक पत्रिका में लिखने के कारण उसके संपादक वामनराव ढवले
के साथ तथा अनंत काणेकर, बा भ बोरकर, पु भा भावे आदि मराठी के प्रसिद्ध
साहित्यकारों के साथ इसी कालखंड में उनकी दोस्ती हुई।
1942 में तात्या का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह ‘विशाखा’ प्रकाशित हुआ। मराठी रसिकों ने इस संग्रह
को सिर पर उठा लिया। 1944 में नासिक की मनोरमा सोनवणी के साथ तात्या का विवाह हुआ।
उसके बाद हर शनिवार-रविवार को वे नासिक हो आते। कभी एकाध-दो दिन और रुक जाते। इससे
उनके पत्रकारिता से संबद्ध लेखनकार्य में अनियमितता आई। इसलिए 1946 में तात्या ने
मुंबई को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया और नासिक में डेरा डाला।
तात्या की पत्नी म्युनिसिपल स्कूल में प्रधानाध्यापिका थीं। शादी के साल भर
बाद एक पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हुई लेकिन दुर्भाग्य से किसी कारणवश वह चल बसा। 1972
में कैंसर के कारण पत्नी भी गुजर गईं। उसके बाद तात्यासाहब ने जिंदगी अकेले ही
काटी।
कुसुमाग्रज की कविता
'जीवनलहरी' कुसुमाग्रज का पहला कवितासंग्रह है। इसमें कवि ने आठ पंक्तियोंवाला एक नया
काव्यवृत्त अपनाया। इस संग्रह की सभी कविताएं इसी वृत्त में लिखी गई हैं। इन छोटी
छोटी कविताओं में अलग अलग भाव व्यक्त हैं। एक वृत्त में बाव पूरी तरह व्यक्त न हुआ
हो तो उसके बाद के वृत्त में उसे पूरा किया गया है। कविताओं का स्वर आदर्शवादी है।
उस युग के प्रसिद्ध कवि श्री गोविंदाग्रज की स्पष्ट छाप इस संग्रह की कविताओं प
रदेखने मिलती है। तात्यासाहब पर गोविंदाग्रज के प्रभाव की कल्पना इस बात से की जा
सकती है कि उनके कविनाम की तर्ज पर उन्होंने अपना कविनाम लिया -कुसुमाग्रज।
कुसुमाग्रज की काव्यसृष्टि में व्यक्त चिरंतन तत्वों के इस कवितासंग्रह में भी
दर्शन होते हैं। जैसे-
"गरीबी हा दोषच का
"गरीबी हा दोषच का
फोडिती का हे टाहो
ऐकत चैनीत हाका
देव कसा निजला हो"
(गरीबी दोष क्यों है? इन्हें इसप्रकार बुक्का फाड़ कर क्यों रोना पड़ता है? उनकी पुकारें सुनते हुए भगवान सोया क्यों रहता है?)
(गरीबी दोष क्यों है? इन्हें इसप्रकार बुक्का फाड़ कर क्यों रोना पड़ता है? उनकी पुकारें सुनते हुए भगवान सोया क्यों रहता है?)
तथा-
"हे देऊळ ही नीती। सत्तेचे हे कावे।।
जुलुमाहुन अन्य जगी। पाप न आम्हां ठावे।।"
(मंदिर और नीति सब सत्ता की कारस्तानियां हैं। हम जानते हैं कि दुनिया में
जुल्म से बढ़ कर कोई पाप नहीं होता।)
'जीवनलहरी' का दूसरा संस्करण 1949 में प्रकाशित हुआ। मूल किताब की 35 कविताओं का इसमें परिष्करण
किया है, 27 कविताएं हटा दी हैं और नई 105 कविताओं को शामिल किया है। इसीलिए आलोचक द दि पुंडे
की राय में यह 1933 में प्रकाशित जीवनलहरी का द्वितीय संस्करण नहीं बल्कि 1949 में प्रकाशित नई कृति है।
(आलोचना, जुलाई 1983, पृ 5) विचारों के स्तर पर इस पूरे द्राविडी प्राणायाम के बावजूद 1949 की जीवनलहरी 1933 के संस्करण से अलग नहीं है।
जीवनलहरी के बाद आए कवितासंग्रह 'विशाखा' तक कवि की वैचारिक
प्रक्रिया काफी प्रौढ़ दिखाई देती है। असल में रशियन क्रांति, 1934 से 1941 तक का हिटलर का कालखंड आदि
बातों के कारण दुनिया प्रभावित थी। भारत में भी इस दौरान स्वतंत्रता प्राप्ति के
लिए संघर्ष जारी था। भगतसिंग, राजगुरु, सुखदेव आदि फांसी के तख्ते पर हंसते हुए लटक गए थे। सुभाष
चंद्र बोस, महात्मा गांधी आदि कई देशभक्तों की आवाज बुलंद थी। इन सभी संघर्षों के चित्र
विशाखा में देखने मिलते हैं। 'विशाखा' में एक ओर वर्गसंघर्ष की कविताएं हैं, जैसे - आगगाडी आणि जमीन, अहि-नकुल, हिमलाट जिसमें प्रकट ही कवि शोषितों के पक्ष में है और शोषकों के विनाश का सपना देखता है। दलितों के करुण चित्र भी- माळाचे मनोगत, पाचोळा जैसी कविताओं में दिखाई देते हैं। भव्य, दिव्य, तेजस्वी, श्रेष्ठ से कवि का प्रेम यहां भी व्यक्त है। कर्तव्यपूर्ति के प्रति निष्ठा की आवश्यकता वह मानते हैं।उनके मन का सूक्ष्म द्वंद्व इस प्रकार व्यक्त होता है-
"ध्येय, प्रेम, आशा यांची
होतसे का कधी पूर्ति
वेड्यापरि पूजतो या
(लक्ष्य, प्रेम, आशा की
कभी पूर्तता नहीं होती। हम ही हैं कि पागलों की तरह इन टूटनेवाली मूर्तियों की
पूजा करते रहते हैं।)
पर इस द्वंद्व को उनका
अदम्य आशावाद मात दे जाता है। सामाजिक कविता हो, राष्ट्रीय कविता हो या प्रेमकविता, हर जगह उनका यह आशावाद दिखाई देता है। सामाजिक जिम्मेदारी
की बलशाली अनुभूति में प्रेम को बाधास्वरूप मानने का भाव विशाखा में दिखाई देता है
उस जमाने के युवा युवतियों की कोमल बाहों के हार के अभिलाषी तो ज़रूर थे पर
कर्तव्यपूर्ति को वे उससे श्रेष्ठ मानते थे।
केशवसुत के बाद सामाजिक जिम्मेदारी का भाव मराठी
काव्य में कुसुमाग्रज ही ले आए। एक जगह उन्होंने कहा है –
“काढ सखे गळ्यातील तुझे चांदण्यांचे हात
क्षितिजाच्या पलिकडे उभे दिवसाचे दूत.”
(सखी मेरे गले से अपने चांदनियों से हाथ हटाओ,
क्षितिज के उस पार दिन के दूत खड़े हैं – सुबह होने में है।)
उनकी कविता की नायिका भी सामर्थ्य की,
भव्योदात्त की पूजा करती हुई पाठकों के सामने आती है। ‘पृथ्वीचे प्रेमगीत’ कविता में सूर्य से प्रेम
करनेवाली पृथ्वी कहती है-
“परि भव्य ते तेज पाहून पुजून
घेऊ गळ्याशी कसे काजवे!
नके क्षुद्र शृङ्गार तो दुर्बळांचा
तुझी दूरता त्याहूनी साहवे!”
(इस कविता में कवि कल्पना करते हैं नायिका पृथ्वी नायक सूर्य से प्रेम करती है।
अन्य ग्रह उससे प्रेम पाने के इच्छुक हैं लेकिन वह कहती है कि हे सूरज, तुम्हारा
भव्य-दिव्य तेज देखने के बाद मैं इन जुगनुओं को कैसे गले लगाऊं? भले मुझे तुमसे दूर रहना
पड़े, दुर्बलों का क्षुद्र शृङ्गार मुझे नहीं चाहिए।)
इस संग्रह में कवि के श्रद्धालु मन की
आध्यात्मिक अनुभूति को सामाजिक यथार्थ की अनुभूति तरह देती हुई दिखाई देती है। सामाजिक
यथार्थ की ओर संकेत करते हुए वह उपरोध से कहते हैं –
“म्हणतात तुमच्या दयेला न अंत
पुकारती संत थोरी तुझी
चिमण्यांच्या घरा लाविसी आग
केवढी विशाल दया तुझी!”
(कहते हैं कि तुम्हारी दया का कोई आर-पार नहीं
है, लेकिन छोटे-छोटे जीवों के घरों पर गाज गिराते हो तुम, कितनी विशाल दया है
तुम्हारी!)
निराशावादी विचारों से कवि अपने को इस संग्रह
में प्रयत्नपूर्वक निर्लिप्त रखते दिखाई देते हैं हालांकि अटल विनाश की काली छाया
को उन्होंने उतनी ही ताकद के साथ व्यक्त भी किया है –
“मातीवर चढणे एक नवा थर अंती”
(अनिवार्य अंत यही कि, मिट्टी पर एक नई परत चढ़ेगी।)
‘गर्जा जयजयकार’ यह उनकी प्रसिद्ध कविता भी
इसी संग्रह में है। इसतरह, विशाखा में एक र हम उनकी खय्याम पर लिखी कविता देखते
हैं तो दूसरी तरफ क्रूर सत्य, वास्तविकताएं आदि को भी यहां वाणी मिली है। दो
परस्परविरोधी चीजों का प्राकृतिक या कविनिर्मित संघर्ष नाट्यपूर्ण रूप से वह शुरू
से अंत तक ले जाते हैं। भव्य उपमाओं के कारण भव्यता के प्रति उनकी आसक्ति प्रकट
होती है। अताह कल्पनाशक्ति के दर्शन होते हैं। इस अथाह कल्पनाशक्ति का सबल आधार
उनकी कलात्मक शब्दयोजना है। इसके सहारे विषयवस्तु का वे समानुपातिक प्रतिपादन करते
हैं। हम कह सकते हैं कि ‘विशाखा’ में प्रकट दर्शन कालसापेक्ष होने के बावजूद उनकी कविता युग
के सत्य तक पहुंची है।
‘विशाखा’ की गेय कविताओं के बाद कवि का गद्यकाव्यसंग्रह ‘समिधा’ निकला। इस संग्रह में कुल
40 कविताएं हैं। कवि की विशाल कल्पनाशक्ति, ओजस्वी प्रतिमाएं, आग तथा प्रकाश के
प्रति कवि का आकर्,ण इस संग्रह में व्यक्त हुआ है। उनका रचनाकौशल तथा शब्दभंडार की
विविदता भी इस संग्रह में व्यक्त है। मराठी कविता में कुसुमाग्रज के इन गद्य
काव्यों का अपना स्तान है।
‘विशाखा’ के प्रकाशन के दस सालों बाद उनका ‘किनारा’ कवितासंग्रह निकला। ‘किनारा’ में कवि साम्यवाद से
समाजवाद की तरफ झुकते नजर आते हैं। ईश्वरी सत्ता को जहां विशाखा में नकारा गया है
वहीं किनारा में कवि अज्ञात को मान्यता देता हुआ दिखाई देता है। इस संग्रह की
कविताओं में कवि का मन होने-न-होने की भावनाओं के बीच झूलता-सा नजर आता है –
“अससी सतत मला अज्ञात
कणा कणातुन तव कानोसा घेतो जरी जगतात
नदीकिनारी अमल जलातुन
गमते पलभर हो तव दर्शन
तोच पडोनी पर्ण लोपते प्रतिमा जलवलयात”
(दुनिया के हर जर्रे से मुझे तुम्हारे होने का
अहसास होता तो है, कभी नदी किनारे बैठा रहता हूं तब स्वच्छ जल में तुम्हारा
प्रतिबिंब दिखाई देता है, ध्यान से देख सकूं तभी पत्ता गिरने से उठती तरंगों के
बीच तुम्हारी वह प्रतिमा खो जाती है।)
बाह्यघटकों और आत्मानुभूति का जो सामंजस्य ‘विशाखा’ में हम देखते हैं वहीं ‘किनारा’ में आत्मानुभूति का
अभाव-सा महसूस होता है। सामाजिक गटनाओं से यहां वे उद्वेलित तो दिखाई देते हैं
लेकिन इस उद्वेलन की कारणमीमांसा वे नहीं कर पाते।
“किसी निर्जन द्वीप पर जाते समय केवल एक ही किताब अगर साथ में लेनी हो तो मैं ‘मेघदूत’ ही चुनूंगा”- कह कर कुसुमाग्रज ने
मेगदूत के प्रति अपनी भक्ति का परिचय दिया है। इसी प्रेम के कारण शायद वह अनुवाद
की ओर मुड़े हों। अनुवाद की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इस अनुवाद से उनकी प्रतिभा,
शब्दों को अपनी मर्जी के अनुसार मोडने की उनकी सामर्थ्य, सुयोग्य शब्दचयन आदि का
पता चलता है।
1952 से लेकर 1960 तक का समय राष्ट्रीय इतिहास
के कालखंड के नजरिए से संघर्षशून्य समय है। उस दौरान आजादी के कारण सबका मन तृप्त
था। समाज एक मीठे उनींदेपन में डूबा था। इस भावस्थिति की छाप उनके संग्रह ‘मराठी माती’ पर दिखाई देती है। इस पूरे
संग्रह में ‘ध्वजगीत’ यही एक राष्ट्रीय भाव व्यक्त करती कविता है – सामाजिक से अदिक निजी बावों के
प्रकटीकरण की ओर इस संग्रह की कविताएं झुकती हैं। ‘विशाखा’ में प्रेमबंधन से दूर
रहनेवाला भाव ‘किनारा’ में स्मृतिव्याकुल बना है तो ‘मराठी माती’ में प्रेम के प्रकटीकरण पर
निर्बंध लादे गए हैं। ‘किनारा’ में आध्यात्म की ओर झुकनेवाला भाव यहां और स्पष्ट हुआ है।
इस संग्रह में प्रकृति-वर्णन करनेवाली कविताओं की संख्या भी ध्यान खींचनेवाली है।
‘मराठी माती’ के आने के तुरंत दूसरे साल ही उनका ‘स्वगत’ संग्रह आया जिसके भाव में ‘मराठी माती’ में व्यक्त बाव से कोई फेर
नजर नहीं आता। ‘स्वगत’ में व्यक्तिपरक तथा स्थलों का वर्णन करनेवाली कई कविताएं हैं। 1962 तक
स्वतंत्र भारत संघर्षहीन, आत्मलीन रहा, सायद इसीलिए कवि को इतिहास की तरफ मुड़ना
पड़ा। इसके अलावा अपनी सामाजिक जागरुकता और प्रतिक्रियाओं की ओर तटस्थता से देखने
की कवि की मनोवृत्ति यहां दिखाई देती है –
“हजार डोळ्यांमधले पाणी
माझ्या डोळ्यांमध्ये जमे
हजार कंठातील घोषणा
माझ्या कंठामध्ये घुमे
हजार हृदये गहिवरती तर
मन माझे ही गहिवरते
असे हजारासंगे आहे
जडलेले माझे नाते
असेच आहे आणि तरीही
अनोळखी मी सदाच राही
दूर हजारापासुनि आहे
विजनामधि माझे घरटे
मीपण भरले जयात माझे
जे आहे माझ्यापुरते”
‘मराठी माती’ की परतत्व अनुभूति की खोज इस संग्रह में भी दिखाई देती है। आस्तिकता साथ नहीं
छोड़ती और नास्तिकता का आकर्षण बुलाता रहता है। कवि की प्रतिभा आध्यात्मिकता की
खोज में डूबी रहती है।
‘किनारा’ के बाद एक बार फिर ‘हिमरेषा’ में कवि की सोई राष्ट्रीय
अनुभूति अंगडाई लेती दिखाई देती है। चीन के आक्रमण के पश्चात एक बार फिर कवि की
प्रतिभा जाग उठी और उसने ‘आवाहन’, ‘निर्धार’, ‘रक्त तुझे हे’ आदि कविताओं से चीन के आक्रमण
के खिलाफ बारतीयों के मन की आग को शब्दबद्ध किया। ‘विशाखा’ की ‘मात’ कविता की तरह ‘चार कोळसेवाले’ यह इस संग्रह की कविता है। ‘मध्यमवर्ग : समस्या’, ‘मध्यमवर्ग : विचारशीलता’ आदि उपहासात्मक कविताएं भी
इस संग्रह में शामिल हैं।
राष्ट्र रणसम्मुख हो तो अब तक कुसुमाग्रज की
कविता भी रणसम्मुख होती आई थी, पर 1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध तथा विजय
का जिक्र इस संग्रह की कविताओं में अपेक्षित होते हुए भी बिल्कुल नहीं दिखाई देता।
‘असह्य’ कविता कुछ हद तक ठीक बन पड़ी है। प्रेमभाव व्यक्त करनेवाली ‘क्षणिक’ कविता में एक सुंदर चित्र
वह खींचते हैं –
“मस्तक ठेवुनि गेलीस जेव्हा
अगतिक माझ्या पायावरी
या पायांना अदम्य इच्छा
ओठ व्हायची झाली होती.”
बिल्कुल अलिप्त भाव से प्रेम करनेवाली, प्रियतम
की यशोगाथा दूर ही से गाने वाली, वेदना सहनेवाली नायिका का चित्र कुसुमाग्रज शुरू
से खींचते आए हैं। इस संग्रह की ‘गवळण’, ‘गीत’ कविताएं इसी तरह की हैं। इसके अलावा कवि ने इस संग्रह में
कुछ मजाकिया कविताएं लिखने की भी कोशिश की है।
‘वादळवेल’ के बारह सालों बाद कवि का ‘छंदोमयी’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। ‘छंदोमयी’ में एक बार फिर वह सजग हुए
दिखाई देते हैं। भ्रष्टाचार, लाचारी का वर्णन यहां मिलता है। इस संग्रह की प्रेम
कविता भी मूक प्रेम की महिमा गाती है। इन सभी कविताओं की पृष्ठभूमि पर ‘अगतिक’ कविता मन मोह लेती है।
‘जाईचा कुंज’ और ‘श्रावण’ ये दो कवि के बाल कविता
संग्रह हैं। इनमें कवि बालकों के साथ तद्रूप होने की कोशिश करते दिखाई देते हैं।
इस प्रकार, इन 14 कवितासंग्रहों में व्यक्त
कविताओं में एक निश्चित तत्व के सहारे उत्तरोत्तर प्रकट होते गए हैं। थोडे में
कहना हो तो, कवि कुसुमाग्रज की कविता सुंदर है जिसने मराठी पाटकों के मन पर लगभग
50 वर्षों तक राज किया।
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कुसुमाग्रज की साहित्य संपदा
कविता संग्रह-
जीवनलहरी (1933), जाईचा कुंज (बालकाव्य, 1936), विशाखा (1942), समिधा (गद्यगीत,1947),
जीवनलहरी -2 (1949), किनारा (1952), मेघदूत (अनुवाद, 1956), मराठी माती (1960),
स्वगत (1962), हिमरेषा (1964), वादळवेल (1969), छंदोमयी (1982), मुक्तायन (1984),
श्रावण (बालकाव्य 1985).
नाटक
दुसरा पेशवा (1947), कौंतेय (1953), दिवाणी दावा (1954), देवाचे घर (1956),
ययाति आणि देवयानी (1966), आमचं नाव बाबूराव (1966), वीज म्हणाली धरतीला (1970),
नटसम्राट (1971), विदूषक (1973), एक होती वाघीण (1975), आनंद (1976), मुख्यमंत्री (1979),
चंद्र जिथे उगवत नाही (1981), नाटक बसते आहे और दो एकांकी।
उपन्यास
कल्पनेच्या तीरावर (1956), वैष्णव (1946), जादूची होडी (1950, बच्चों के लिए),
जान्हवी (1952).
कथासंग्रह
फुलवाली (1950), सतारीचे बोल आणि इतर कथा (1958), काही वृद्ध काही तरुण (1961),
प्रेम आणि मांजर (1964), कुसुमाग्रजांच्या बारा कथा (1968), अपॉइंटमेंट (1978).
लेखसंग्रह
आदर्श निबंध (1952), आहे आणि नाही (1957), विराम चिह्ने (1970), प्रतिसाद (1976),
एकाकी तारा (1982), शोध शेक्सपीयरचा (1983), साहित्य : आग्रह आणि
दुराग्रह (1960).
कुसुमाग्रज का अनूदित साहित्य
दूरचे दिवे (आइडियल हजबंड, ले. ऑस्कर वाइल्ड, 1946 ), राजमुकुट (मैकबेथ,
ले. शेक्सपीयर, 1954), वैजयंती (मॉरिस -मेटर लिंक, 1956), ऑथेल्लो (शेक्सपीयर,
1961), बेकेट (ज्यां अनुई, 1971), महंत (1986).
इसके अलावा उनका संपादित साहित्य भी है।