Friday, November 3, 2017

*पुराणिकबुवांची दाढी*

*-संध्या पेडणेकर*
वैसे संत और हास्य का दोस्ताना संत साहित्य में कम ही देखने को मिलता है, लेकिन संत तुकाराम के इस पद की हर पंक्ति में हास्य कूट कूट कर भरा हुआ है।
पुराणिक मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है -पुराणों की कथाएं सुनानेवाला पुरोहित। उसी पुराणिकबाबा की एक कथा के प्रसंग का तुकारामजी ने यहां वर्णन किया है। इस पद का पूरा पूरा मजा लेने के लिए आपको अपनी कल्पना के घोडे दौड़ा कर उनके जमाने में पहुंचना होगा।
बात संत तुकाराम के जमाने की चल रही है। तब लोग दिन भर अपने अपने कामों में व्यस्त रहते। पुरुषों के अपने अपने व्यवसाय होते। महिलाएं घर के काम, खेती के काम आदि में, बच्चों की देखभाल, मवेशियों की देखभाल में लगी रहतीं। लेकिन शाम के समय खाना-चौका निपटने के बाद सब फुर्सत में आ जाते।
फिर गांव की चौपाल में पुराणिकबुवा का कीर्तन सुनने लोग पहुंचते। हालांकि, कई बार कथा सुनते हुए लोगों को दिन भर के काम की थकान के मारे ऊंघ आती, कथा सुनते सुनते कोई सो भी जाते। कथा कहनेवाला अच्छा वक्ता न हो तो भी लोग ऊब जाते। उनका मन कथा या कथा के जरिए बताए जानेवाले तथ्य से हट जाता। लेकिन वक्ता अगर अच्छा होता तो लोग कथा में डूब जाते। संत तुकाराम ने यहां कथा में डूबे एक श्रोता की समरसता का कारण कुछ और ही बताया है।
इस पद में संत तुकाराम ने जिस गड़रिए की कथा से समरसता की बात बताई है, उसका मसला थोड़ा अलग है। बकरियां पालना उसका व्यवसाय है और उनकी गिनती बढ़ाने के लिए उसने एक तगडा बकरा पाल रखा था। दुर्भाग्य से उसका इकलौता बकरा मर गया था और एक तरह से उसके सामने व्यावसायिक संकट पैदा हो गया था। उदास मन को रिझाने के लिए वह पुराणिक की कथा सुनने आया था।
वैसे तो कम ही पुरोहित दाढ़ी रखते हैं, लेकिन कथा सुनानेवाले उस पुरोहित की दाढ़ी थी। अजीब संयोग की बात है कि दुखी गडरिए को पुरोहित अपने बकरे की तरह लगे। उसके मन में अपने मरे हुए बकरे की याद ताजा हुई। चारा चरते हुए बकरे की ठुड्डी के बाल जैसे हिला करते थे, उसे लगा बिल्कुल उसी प्रकार कथा सुना रहे पुराणिकबाबा की दाढी हिल रही है!
फिर तो, पुराणिकबाबा कथा कहते गए, गडरिया कथा में खोकर आपा खो बैठा। पद कुछ इसप्रकार है-
देखोनि पुराणिकांची दाढी। रडे स्फुंदे नाक ओढी।।1।।
प्रेम खरें दिसे जना। भिन्न अंतरी भावना।।धृ.।।
आवरितां नावरे। खुर आठवी नेवरे।।2।।
बोलों नयें मुखांवाटां। म्हणे होतां ब्यांचा तोटा।।3।।
दोन्ही सिंगें चारी पाय। खुणा दावी म्हणे होय।।4।।
मना आणितां बोकड। मेला त्याची चरफड।।5।।
होता भाव पोटीं। मुखा आलासे शेवटीं।।6।।
तुका म्हणे कुडें। कळो येतें तें रोकडें।।7।।
116, अभंगाचा गाथा, देहू प्रत
भावार्थ-
इस पद में तुकारामजी ने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे पढ़ कर आंखों के आगे वह प्रसंग साकार हो उठता है। वह कह रहे हैं, एक बार एक पुराणिक कहानी बता रहे थे। वह जैसे ही बोलने के लिए मुंह हिलाते वैसे ही उनकी ठुड्डी के बाल भी हिलने लगते।
कथा सुनने के लिए एक गडरिया भी आया हुआ था। पुराणिक की हिलती दाढी देख कर उसे अपने इकलौते बकरे की याद आयी। भेडें उसके पास कई थीं लेकिन बकरा एक ही था जो मर गया था। गडरिए को अपने मरे बकरे की याद आई और वह रोने लगा। पुराणिक कथा सुनाते जा रहे थे और गडरिया रोता जा रहा था।
मन के खेल न्यारे हैं। मन में जब भाव और संदर्भ अलग अलग होते हैं तब एक ही बात अलग अलग व्यक्तियों को अलग अर्थ बताती है। ऐसा अर्थ जो उनकी अपनी ज़िंदगी से जुड़ा हो, कविता भले कवि ने किसी अन्य संदर्भ में कही हो। इस प्रसंग में पुराणिकबाबा और गडरिया दोनों के मन में भाव और संदर्भ बिल्कुल भिन्न थे। कहानी सुनने गांव के अन्य लोग भी आए हुए थे। पहले तो लोगों को लगा कि गडरिया कथा सुनने में बिल्कुल डूब गया है इसलिए रो रहा है। वे क्याजानें कि गडरिया अपने मरे बकरे के खुर और नाखून याद करके, नाक सुड़क सुड़क कर रो रहा है।
पुराणिकबाबा ने दो उंगलियां दिखा कर कहा कि पुरुष और प्रकृति यही दो मूल तत्व हैं। गडरिए को लगा कि वह कह रहे हैं कि बकरे के दो सींग थे। वह ‘हां हां’ करके हुमक कर रोया। फिर पुराणिकबाबा बोले कि, पिंड और ब्रह्मांड दोनों के चार देह हैं; तो गडरिए को लगा वह कह रहे हैं कि बकरे के चार खुर थे। वह फिर फफक पड़ा। कथा में वह इसकदर खोया था कि, कहने लगा, ‘हांजी, हां। आप सही कह रहे हैं।’ लेकिन बात असल में कुछ और ही थी।
गडरिये को यूं रोता देख कर लोगों ने उससे उसके दुख का कारण पूछा। तब उन्हें पता चला कि गडरिया पुराणिकबाबा की कहानी सुन कर नहीं बल्कि अपने मरे बकरे को याद करके रो रहा है! याद आई भी कैसे? तो, पुराणिकबाबा की ठुड्डी पर उगी दाढी के बाल उनके बोलने पर जब हिले तब उन्हें देख कर उसे अपने मरे बकरे की याद आई!
आखिरी पंक्ति में संत तुकाराम इस किस्से के जरिए पते की बात कहते हैं। वह कहते हैं कि, आखिर सच बात का पता सबको चल ही जाता है। पुराणिकबाबा की कहानी से गडरिए के आंसुओं का ताल्लुक क्या था इसका पता आखिर लोगों को चल ही गया। इसी प्रकार भले कोई कितना भी स्वांग रचाए, भले कोई किसी और राह से जाए या भले कोई बात का और मतलब निकाले, सच सामने आ ही जाता है। 

लक्ष्य

-संध्या पेडणेकर 
बीरबल की कहानी याद है? पानी सिर तक आता है तो बंदरिया अपनी जान से प्यारे बच्चे के ऊपर खड़ी होकर सांस लेती है और अपनी जान बचाती है। उस वक्त बच्चे की मौत का नहीं, उसके मन में अपने जीने का विचार बलवान हो जाता है।
आदिम इंसान इसी धर्म को जानता था। उसके लिए अपने आप को बचाना सबसे बड़ा आपद्धर्म था। सृष्टि का नियम है कि जीत बलवान की होती है। कानून भी बलवान का ही चलता है। और आपद्धर्म निभाते हुए इंसानों के झुंड जब भिड जाते हैं तब उनकी ओढी हुई इंसानियत उधड कर उनसे अलग हो जाती है।
समाज का निर्माण, लेकिन, इंसान के इस आदिम आपद्धर्म को दोयम ठहराता है। आज हम सब समाज में रहते हैं और सुखी समाज का बुनियादी नियम है एक-दूसरे की सहायता करते हुए सुपंथ पर शांतिपूर्ण तरीके से अग्रसर होते रहना।
आदिमता की कुछेक प्रवृत्तियां आज के इंसान के खून में प्रवाहित हैं जो गाहेबगाहे उसे स्वकेंद्रित बनाती है। उसकी बुद्धि ब्रह्मांड के भले के बारे में सोचते सोचते दुनिया, मानव, देश, धर्म से होते हुए अपने धर्म के भले तक आकर ठहरती है। इतिहास गवाह है कि धार्मिक उन्माद सबसे अधिक क्रूर, विकृत और बीभत्स होता है। अपने धर्म के बचाव के उन्माद में इंसान भूल जाता है कि कलकल कर बहता शांत जलप्रवाह मानव की सभ्यता का अगर पोषक रहा है तो समय समय पर उसमें आनेवाले उफानों के कारण कई सभ्यताएं नष्ट भी हुई हैं। स्व-धर्म केंद्रित इंसानों की आततायी हरकतों के कारण आज कम से कम एक धर्म जाहिर तौर पर विश्व के सामने संकट के रूप में खडा है।
धार्मिक असंतोष के कारण जब उन्माद फैलता है तब इंसान को इस बात की याद दिलाना ज़रूरी हो जाता है कि हर हाल में पहले इंसान होना चाहिए, बाद में उसकी मान्यताओं के घेरे। केंद्र न हो तो घेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, जबकि घेरे के मिटने के बाद भी इंसान सुरक्षित जी सकता है।
रेखा को बिना छुए छोटी बनाने का तरीका बतानेवाली बीरबल की ही दूसरी कहानी उसकी ऊपरोल्लिखित कहानी के तोड़ के रूप में हम ले सकते हैं। कहानी में बताया गया है कि खिंची हुई रेखा अगर बड़ी है तो उसके पडोस में उससे लंबी रेखा खींचने से वह छोटी बन जाती है। उसके लिए पहली रेखा मिटाने की छोड़िए, उसे छूने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।
गांव में एक ही छोटी दूकान है। सब उसीके ग्राहक हैं। लेकिन अगर उसके पड़ोस में बडी दूकान खुल जाती है तो सहज ही लोगों के पैर उस दुकान की ओर मुड़ते हैं। पुरानी दूकान का मालिक नई दूकान को नष्ट कर नएपन को ललचाए हुए अपने ग्राहकों को वापिस नहीं पा सकता, लेकिन अगर वह अपनी दूकान का जीर्णोद्धार कर उसे नई दुकान की बराबरी का या उससे अधिक चकाचौंधवाला बना दे तो ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उसे कुछ और नहीं करना पड़ता।
अपने धर्म की कुरीतियां, पुराने पड़ चुके रीति-रिवाज, अतार्किक प्रथाएं नष्ट कर या उनके नवीनीकरण के सहारे अगर इंसान को बांधा जा सके तो हर धर्म की श्रेष्ठता स्वयं साबित हो सकती है। धर्म किसी एक वर्ग के वश में नहीं, बल्कि सर्वसमावेशक होना चाहिए ताकि ऊंच-नीच के अहसास का शिकार बन उसका कोई अनुयायी न आततायी बने, न अलगाव महसूस करे और न उसके मन में अपने को श्रेष्ठ साबित करने की मंशा जागे।
भलाई की सब बातें शुरू शुरू में असंभव, कपोलकल्पित लगती हैं। किसने सोचा था कि इंसान हवा में उड़ सकता है, पानी पर तैर सकता है, दो निश्चित स्थानों के बीच की लंबी दूरियां इत्मीनान से, बड़े आराम के साथ तय कर सकता है
? आज का इंसान यह सब कर लेता है। इतना ही आसान हो सकता है समाज में रहनेवाले जीवों को सामाजिक बनाना।
अपने, पास-पडोस के, जाति-धर्म के, देश के, देशों के, दुनिया के, ब्रह्मांड के भले के लिए शांतिपूर्ण जीवन को बढ़ावा देना हो तो सबसे पहले हिंसा की, पर विजय की, स्वश्रेष्ठता की भावना को त्यागना होगा। इंसानों को, इंसानों की बनाई समाज-व्यवस्था को इंसानियत के भले की सोचनी होगी। शांतिपूर्ण स्थितियों में ही यह संभव है। शांति में बडी शक्ति है। सही निर्णय तक पहुंचने के लिए किया गया अपनी राय का तात्कालिक विरोध सार्वजनिक रूप से निर्णय तक पहुंचने के बाद विरोधकों को भी ससम्मान स्वीकारना होगा। यह तभी संभव हो सकता है जब स्व नहीं, सर्वजन महत्वपूर्ण हों। सब लोगों का सुख और शांतिमय जीवन ही समाज और समाजधुरीणों का एकमात्र लक्ष्य हो।
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शब्दार्थ -
आपद्धर्म :
1. ऐसा दूषित निंदनीय या वर्जित आचरण या व्यवहार जो आपत्तिकाल में विवशता पूर्वग्रहण किया जा सकता हो और इसी लिए दूषित न माना जाता हो।
2. किसी वर्ण के लिए वह व्यवसाय या काम जो दूसरा कोई जीवनोपाय न होने की ही दशा में ग्रहण किया जा सकता हो।
3. A conduct permissible only in times of extreme distress
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