*-संध्या पेडणेकर*
वैसे संत और हास्य का दोस्ताना संत साहित्य में कम ही देखने को मिलता है, लेकिन संत तुकाराम के इस पद की हर पंक्ति में हास्य कूट कूट कर भरा हुआ है।
पुराणिक मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है -पुराणों की कथाएं सुनानेवाला पुरोहित। उसी पुराणिकबाबा की एक कथा के प्रसंग का तुकारामजी ने यहां वर्णन किया है। इस पद का पूरा पूरा मजा लेने के लिए आपको अपनी कल्पना के घोडे दौड़ा कर उनके जमाने में पहुंचना होगा।
बात संत तुकाराम के जमाने की चल रही है। तब लोग दिन भर अपने अपने कामों में व्यस्त रहते। पुरुषों के अपने अपने व्यवसाय होते। महिलाएं घर के काम, खेती के काम आदि में, बच्चों की देखभाल, मवेशियों की देखभाल में लगी रहतीं। लेकिन शाम के समय खाना-चौका निपटने के बाद सब फुर्सत में आ जाते।
फिर गांव की चौपाल में पुराणिकबुवा का कीर्तन सुनने लोग पहुंचते। हालांकि, कई बार कथा सुनते हुए लोगों को दिन भर के काम की थकान के मारे ऊंघ आती, कथा सुनते सुनते कोई सो भी जाते। कथा कहनेवाला अच्छा वक्ता न हो तो भी लोग ऊब जाते। उनका मन कथा या कथा के जरिए बताए जानेवाले तथ्य से हट जाता। लेकिन वक्ता अगर अच्छा होता तो लोग कथा में डूब जाते। संत तुकाराम ने यहां कथा में डूबे एक श्रोता की समरसता का कारण कुछ और ही बताया है।
इस पद में संत तुकाराम ने जिस गड़रिए की कथा से समरसता की बात बताई है, उसका मसला थोड़ा अलग है। बकरियां पालना उसका व्यवसाय है और उनकी गिनती बढ़ाने के लिए उसने एक तगडा बकरा पाल रखा था। दुर्भाग्य से उसका इकलौता बकरा मर गया था और एक तरह से उसके सामने व्यावसायिक संकट पैदा हो गया था। उदास मन को रिझाने के लिए वह पुराणिक की कथा सुनने आया था।
वैसे तो कम ही पुरोहित दाढ़ी रखते हैं, लेकिन कथा सुनानेवाले उस पुरोहित की दाढ़ी थी। अजीब संयोग की बात है कि दुखी गडरिए को पुरोहित अपने बकरे की तरह लगे। उसके मन में अपने मरे हुए बकरे की याद ताजा हुई। चारा चरते हुए बकरे की ठुड्डी के बाल जैसे हिला करते थे, उसे लगा बिल्कुल उसी प्रकार कथा सुना रहे पुराणिकबाबा की दाढी हिल रही है!
फिर तो, पुराणिकबाबा कथा कहते गए, गडरिया कथा में खोकर आपा खो बैठा। पद कुछ इसप्रकार है-
वैसे संत और हास्य का दोस्ताना संत साहित्य में कम ही देखने को मिलता है, लेकिन संत तुकाराम के इस पद की हर पंक्ति में हास्य कूट कूट कर भरा हुआ है।
पुराणिक मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है -पुराणों की कथाएं सुनानेवाला पुरोहित। उसी पुराणिकबाबा की एक कथा के प्रसंग का तुकारामजी ने यहां वर्णन किया है। इस पद का पूरा पूरा मजा लेने के लिए आपको अपनी कल्पना के घोडे दौड़ा कर उनके जमाने में पहुंचना होगा।
बात संत तुकाराम के जमाने की चल रही है। तब लोग दिन भर अपने अपने कामों में व्यस्त रहते। पुरुषों के अपने अपने व्यवसाय होते। महिलाएं घर के काम, खेती के काम आदि में, बच्चों की देखभाल, मवेशियों की देखभाल में लगी रहतीं। लेकिन शाम के समय खाना-चौका निपटने के बाद सब फुर्सत में आ जाते।
फिर गांव की चौपाल में पुराणिकबुवा का कीर्तन सुनने लोग पहुंचते। हालांकि, कई बार कथा सुनते हुए लोगों को दिन भर के काम की थकान के मारे ऊंघ आती, कथा सुनते सुनते कोई सो भी जाते। कथा कहनेवाला अच्छा वक्ता न हो तो भी लोग ऊब जाते। उनका मन कथा या कथा के जरिए बताए जानेवाले तथ्य से हट जाता। लेकिन वक्ता अगर अच्छा होता तो लोग कथा में डूब जाते। संत तुकाराम ने यहां कथा में डूबे एक श्रोता की समरसता का कारण कुछ और ही बताया है।
इस पद में संत तुकाराम ने जिस गड़रिए की कथा से समरसता की बात बताई है, उसका मसला थोड़ा अलग है। बकरियां पालना उसका व्यवसाय है और उनकी गिनती बढ़ाने के लिए उसने एक तगडा बकरा पाल रखा था। दुर्भाग्य से उसका इकलौता बकरा मर गया था और एक तरह से उसके सामने व्यावसायिक संकट पैदा हो गया था। उदास मन को रिझाने के लिए वह पुराणिक की कथा सुनने आया था।
वैसे तो कम ही पुरोहित दाढ़ी रखते हैं, लेकिन कथा सुनानेवाले उस पुरोहित की दाढ़ी थी। अजीब संयोग की बात है कि दुखी गडरिए को पुरोहित अपने बकरे की तरह लगे। उसके मन में अपने मरे हुए बकरे की याद ताजा हुई। चारा चरते हुए बकरे की ठुड्डी के बाल जैसे हिला करते थे, उसे लगा बिल्कुल उसी प्रकार कथा सुना रहे पुराणिकबाबा की दाढी हिल रही है!
फिर तो, पुराणिकबाबा कथा कहते गए, गडरिया कथा में खोकर आपा खो बैठा। पद कुछ इसप्रकार है-
देखोनि पुराणिकांची दाढी। रडे स्फुंदे नाक ओढी।।1।।
प्रेम खरें दिसे जना। भिन्न अंतरी भावना।।धृ.।।
आवरितां नावरे। खुर आठवी नेवरे।।2।।
बोलों नयें मुखांवाटां। म्हणे होतां ब्यांचा तोटा।।3।।
दोन्ही सिंगें चारी पाय। खुणा दावी म्हणे होय।।4।।
मना आणितां बोकड। मेला त्याची चरफड।।5।।
होता भाव पोटीं। मुखा आलासे शेवटीं।।6।।
तुका म्हणे कुडें। कळो येतें तें रोकडें।।7।।
116, अभंगाचा गाथा, देहू प्रत
प्रेम खरें दिसे जना। भिन्न अंतरी भावना।।धृ.।।
आवरितां नावरे। खुर आठवी नेवरे।।2।।
बोलों नयें मुखांवाटां। म्हणे होतां ब्यांचा तोटा।।3।।
दोन्ही सिंगें चारी पाय। खुणा दावी म्हणे होय।।4।।
मना आणितां बोकड। मेला त्याची चरफड।।5।।
होता भाव पोटीं। मुखा आलासे शेवटीं।।6।।
तुका म्हणे कुडें। कळो येतें तें रोकडें।।7।।
116, अभंगाचा गाथा, देहू प्रत
भावार्थ-
इस पद में तुकारामजी ने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे पढ़ कर आंखों के आगे वह प्रसंग साकार हो उठता है। वह कह रहे हैं, एक बार एक पुराणिक कहानी बता रहे थे। वह जैसे ही बोलने के लिए मुंह हिलाते वैसे ही उनकी ठुड्डी के बाल भी हिलने लगते।
कथा सुनने के लिए एक गडरिया भी आया हुआ था। पुराणिक की हिलती दाढी देख कर उसे अपने इकलौते बकरे की याद आयी। भेडें उसके पास कई थीं लेकिन बकरा एक ही था जो मर गया था। गडरिए को अपने मरे बकरे की याद आई और वह रोने लगा। पुराणिक कथा सुनाते जा रहे थे और गडरिया रोता जा रहा था।
मन के खेल न्यारे हैं। मन में जब भाव और संदर्भ अलग अलग होते हैं तब एक ही बात अलग अलग व्यक्तियों को अलग अर्थ बताती है। ऐसा अर्थ जो उनकी अपनी ज़िंदगी से जुड़ा हो, कविता भले कवि ने किसी अन्य संदर्भ में कही हो। इस प्रसंग में पुराणिकबाबा और गडरिया दोनों के मन में भाव और संदर्भ बिल्कुल भिन्न थे। कहानी सुनने गांव के अन्य लोग भी आए हुए थे। पहले तो लोगों को लगा कि गडरिया कथा सुनने में बिल्कुल डूब गया है इसलिए रो रहा है। वे क्याजानें कि गडरिया अपने मरे बकरे के खुर और नाखून याद करके, नाक सुड़क सुड़क कर रो रहा है।
पुराणिकबाबा ने दो उंगलियां दिखा कर कहा कि पुरुष और प्रकृति यही दो मूल तत्व हैं। गडरिए को लगा कि वह कह रहे हैं कि बकरे के दो सींग थे। वह ‘हां हां’ करके हुमक कर रोया। फिर पुराणिकबाबा बोले कि, पिंड और ब्रह्मांड दोनों के चार देह हैं; तो गडरिए को लगा वह कह रहे हैं कि बकरे के चार खुर थे। वह फिर फफक पड़ा। कथा में वह इसकदर खोया था कि, कहने लगा, ‘हांजी, हां। आप सही कह रहे हैं।’ लेकिन बात असल में कुछ और ही थी।
गडरिये को यूं रोता देख कर लोगों ने उससे उसके दुख का कारण पूछा। तब उन्हें पता चला कि गडरिया पुराणिकबाबा की कहानी सुन कर नहीं बल्कि अपने मरे बकरे को याद करके रो रहा है! याद आई भी कैसे? तो, पुराणिकबाबा की ठुड्डी पर उगी दाढी के बाल उनके बोलने पर जब हिले तब उन्हें देख कर उसे अपने मरे बकरे की याद आई!
आखिरी पंक्ति में संत तुकाराम इस किस्से के जरिए पते की बात कहते हैं। वह कहते हैं कि, आखिर सच बात का पता सबको चल ही जाता है। पुराणिकबाबा की कहानी से गडरिए के आंसुओं का ताल्लुक क्या था इसका पता आखिर लोगों को चल ही गया। इसी प्रकार भले कोई कितना भी स्वांग रचाए, भले कोई किसी और राह से जाए या भले कोई बात का और मतलब निकाले, सच सामने आ ही जाता है।
इस पद में तुकारामजी ने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे पढ़ कर आंखों के आगे वह प्रसंग साकार हो उठता है। वह कह रहे हैं, एक बार एक पुराणिक कहानी बता रहे थे। वह जैसे ही बोलने के लिए मुंह हिलाते वैसे ही उनकी ठुड्डी के बाल भी हिलने लगते।
कथा सुनने के लिए एक गडरिया भी आया हुआ था। पुराणिक की हिलती दाढी देख कर उसे अपने इकलौते बकरे की याद आयी। भेडें उसके पास कई थीं लेकिन बकरा एक ही था जो मर गया था। गडरिए को अपने मरे बकरे की याद आई और वह रोने लगा। पुराणिक कथा सुनाते जा रहे थे और गडरिया रोता जा रहा था।
मन के खेल न्यारे हैं। मन में जब भाव और संदर्भ अलग अलग होते हैं तब एक ही बात अलग अलग व्यक्तियों को अलग अर्थ बताती है। ऐसा अर्थ जो उनकी अपनी ज़िंदगी से जुड़ा हो, कविता भले कवि ने किसी अन्य संदर्भ में कही हो। इस प्रसंग में पुराणिकबाबा और गडरिया दोनों के मन में भाव और संदर्भ बिल्कुल भिन्न थे। कहानी सुनने गांव के अन्य लोग भी आए हुए थे। पहले तो लोगों को लगा कि गडरिया कथा सुनने में बिल्कुल डूब गया है इसलिए रो रहा है। वे क्याजानें कि गडरिया अपने मरे बकरे के खुर और नाखून याद करके, नाक सुड़क सुड़क कर रो रहा है।
पुराणिकबाबा ने दो उंगलियां दिखा कर कहा कि पुरुष और प्रकृति यही दो मूल तत्व हैं। गडरिए को लगा कि वह कह रहे हैं कि बकरे के दो सींग थे। वह ‘हां हां’ करके हुमक कर रोया। फिर पुराणिकबाबा बोले कि, पिंड और ब्रह्मांड दोनों के चार देह हैं; तो गडरिए को लगा वह कह रहे हैं कि बकरे के चार खुर थे। वह फिर फफक पड़ा। कथा में वह इसकदर खोया था कि, कहने लगा, ‘हांजी, हां। आप सही कह रहे हैं।’ लेकिन बात असल में कुछ और ही थी।
गडरिये को यूं रोता देख कर लोगों ने उससे उसके दुख का कारण पूछा। तब उन्हें पता चला कि गडरिया पुराणिकबाबा की कहानी सुन कर नहीं बल्कि अपने मरे बकरे को याद करके रो रहा है! याद आई भी कैसे? तो, पुराणिकबाबा की ठुड्डी पर उगी दाढी के बाल उनके बोलने पर जब हिले तब उन्हें देख कर उसे अपने मरे बकरे की याद आई!
आखिरी पंक्ति में संत तुकाराम इस किस्से के जरिए पते की बात कहते हैं। वह कहते हैं कि, आखिर सच बात का पता सबको चल ही जाता है। पुराणिकबाबा की कहानी से गडरिए के आंसुओं का ताल्लुक क्या था इसका पता आखिर लोगों को चल ही गया। इसी प्रकार भले कोई कितना भी स्वांग रचाए, भले कोई किसी और राह से जाए या भले कोई बात का और मतलब निकाले, सच सामने आ ही जाता है।