-संध्या पेडणेकर
बीरबल की कहानी याद है? पानी सिर तक आता है तो बंदरिया अपनी जान से प्यारे बच्चे के ऊपर खड़ी
होकर सांस लेती है और अपनी जान बचाती है। उस वक्त बच्चे की मौत का नहीं, उसके मन
में अपने जीने का विचार बलवान हो जाता है।
आदिम इंसान इसी धर्म को जानता था। उसके लिए अपने आप को बचाना सबसे बड़ा आपद्धर्म था। सृष्टि का नियम है कि जीत बलवान की होती है। कानून भी बलवान का ही चलता है। और आपद्धर्म निभाते हुए इंसानों के झुंड जब भिड जाते हैं तब उनकी ओढी हुई इंसानियत उधड कर उनसे अलग हो जाती है।
समाज का निर्माण, लेकिन, इंसान के इस आदिम आपद्धर्म को दोयम ठहराता है। आज हम सब समाज में रहते हैं और सुखी समाज का बुनियादी नियम है एक-दूसरे की सहायता करते हुए सुपंथ पर शांतिपूर्ण तरीके से अग्रसर होते रहना।
आदिमता की कुछेक प्रवृत्तियां आज के इंसान के खून में प्रवाहित हैं जो गाहेबगाहे उसे स्वकेंद्रित बनाती है। उसकी बुद्धि ब्रह्मांड के भले के बारे में सोचते सोचते दुनिया, मानव, देश, धर्म से होते हुए अपने धर्म के भले तक आकर ठहरती है। इतिहास गवाह है कि धार्मिक उन्माद सबसे अधिक क्रूर, विकृत और बीभत्स होता है। अपने धर्म के बचाव के उन्माद में इंसान भूल जाता है कि कलकल कर बहता शांत जलप्रवाह मानव की सभ्यता का अगर पोषक रहा है तो समय समय पर उसमें आनेवाले उफानों के कारण कई सभ्यताएं नष्ट भी हुई हैं। स्व-धर्म केंद्रित इंसानों की आततायी हरकतों के कारण आज कम से कम एक धर्म जाहिर तौर पर विश्व के सामने संकट के रूप में खडा है।
धार्मिक असंतोष के कारण जब उन्माद फैलता है तब इंसान को इस बात की याद दिलाना ज़रूरी हो जाता है कि हर हाल में पहले इंसान होना चाहिए, बाद में उसकी मान्यताओं के घेरे। केंद्र न हो तो घेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, जबकि घेरे के मिटने के बाद भी इंसान सुरक्षित जी सकता है।
रेखा को बिना छुए छोटी बनाने का तरीका बतानेवाली बीरबल की ही दूसरी कहानी उसकी ऊपरोल्लिखित कहानी के तोड़ के रूप में हम ले सकते हैं। कहानी में बताया गया है कि खिंची हुई रेखा अगर बड़ी है तो उसके पडोस में उससे लंबी रेखा खींचने से वह छोटी बन जाती है। उसके लिए पहली रेखा मिटाने की छोड़िए, उसे छूने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।
गांव में एक ही छोटी दूकान है। सब उसीके ग्राहक हैं। लेकिन अगर उसके पड़ोस में बडी दूकान खुल जाती है तो सहज ही लोगों के पैर उस दुकान की ओर मुड़ते हैं। पुरानी दूकान का मालिक नई दूकान को नष्ट कर नएपन को ललचाए हुए अपने ग्राहकों को वापिस नहीं पा सकता, लेकिन अगर वह अपनी दूकान का जीर्णोद्धार कर उसे नई दुकान की बराबरी का या उससे अधिक चकाचौंधवाला बना दे तो ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उसे कुछ और नहीं करना पड़ता।
अपने धर्म की कुरीतियां, पुराने पड़ चुके रीति-रिवाज, अतार्किक प्रथाएं नष्ट कर या उनके नवीनीकरण के सहारे अगर इंसान को बांधा जा सके तो हर धर्म की श्रेष्ठता स्वयं साबित हो सकती है। धर्म किसी एक वर्ग के वश में नहीं, बल्कि सर्वसमावेशक होना चाहिए ताकि ऊंच-नीच के अहसास का शिकार बन उसका कोई अनुयायी न आततायी बने, न अलगाव महसूस करे और न उसके मन में अपने को श्रेष्ठ साबित करने की मंशा जागे।
भलाई की सब बातें शुरू शुरू में असंभव, कपोलकल्पित लगती हैं। किसने सोचा था कि इंसान हवा में उड़ सकता है, पानी पर तैर सकता है, दो निश्चित स्थानों के बीच की लंबी दूरियां इत्मीनान से, बड़े आराम के साथ तय कर सकता है? आज का इंसान यह सब कर लेता है। इतना ही आसान हो सकता है समाज में रहनेवाले जीवों को सामाजिक बनाना।
अपने, पास-पडोस के, जाति-धर्म के, देश के, देशों के, दुनिया के, ब्रह्मांड के भले के लिए शांतिपूर्ण जीवन को बढ़ावा देना हो तो सबसे पहले हिंसा की, पर विजय की, स्वश्रेष्ठता की भावना को त्यागना होगा। इंसानों को, इंसानों की बनाई समाज-व्यवस्था को इंसानियत के भले की सोचनी होगी। शांतिपूर्ण स्थितियों में ही यह संभव है। शांति में बडी शक्ति है। सही निर्णय तक पहुंचने के लिए किया गया अपनी राय का तात्कालिक विरोध सार्वजनिक रूप से निर्णय तक पहुंचने के बाद विरोधकों को भी ससम्मान स्वीकारना होगा। यह तभी संभव हो सकता है जब स्व नहीं, सर्वजन महत्वपूर्ण हों। सब लोगों का सुख और शांतिमय जीवन ही समाज और समाजधुरीणों का एकमात्र लक्ष्य हो।
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आदिम इंसान इसी धर्म को जानता था। उसके लिए अपने आप को बचाना सबसे बड़ा आपद्धर्म था। सृष्टि का नियम है कि जीत बलवान की होती है। कानून भी बलवान का ही चलता है। और आपद्धर्म निभाते हुए इंसानों के झुंड जब भिड जाते हैं तब उनकी ओढी हुई इंसानियत उधड कर उनसे अलग हो जाती है।
समाज का निर्माण, लेकिन, इंसान के इस आदिम आपद्धर्म को दोयम ठहराता है। आज हम सब समाज में रहते हैं और सुखी समाज का बुनियादी नियम है एक-दूसरे की सहायता करते हुए सुपंथ पर शांतिपूर्ण तरीके से अग्रसर होते रहना।
आदिमता की कुछेक प्रवृत्तियां आज के इंसान के खून में प्रवाहित हैं जो गाहेबगाहे उसे स्वकेंद्रित बनाती है। उसकी बुद्धि ब्रह्मांड के भले के बारे में सोचते सोचते दुनिया, मानव, देश, धर्म से होते हुए अपने धर्म के भले तक आकर ठहरती है। इतिहास गवाह है कि धार्मिक उन्माद सबसे अधिक क्रूर, विकृत और बीभत्स होता है। अपने धर्म के बचाव के उन्माद में इंसान भूल जाता है कि कलकल कर बहता शांत जलप्रवाह मानव की सभ्यता का अगर पोषक रहा है तो समय समय पर उसमें आनेवाले उफानों के कारण कई सभ्यताएं नष्ट भी हुई हैं। स्व-धर्म केंद्रित इंसानों की आततायी हरकतों के कारण आज कम से कम एक धर्म जाहिर तौर पर विश्व के सामने संकट के रूप में खडा है।
धार्मिक असंतोष के कारण जब उन्माद फैलता है तब इंसान को इस बात की याद दिलाना ज़रूरी हो जाता है कि हर हाल में पहले इंसान होना चाहिए, बाद में उसकी मान्यताओं के घेरे। केंद्र न हो तो घेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा, जबकि घेरे के मिटने के बाद भी इंसान सुरक्षित जी सकता है।
रेखा को बिना छुए छोटी बनाने का तरीका बतानेवाली बीरबल की ही दूसरी कहानी उसकी ऊपरोल्लिखित कहानी के तोड़ के रूप में हम ले सकते हैं। कहानी में बताया गया है कि खिंची हुई रेखा अगर बड़ी है तो उसके पडोस में उससे लंबी रेखा खींचने से वह छोटी बन जाती है। उसके लिए पहली रेखा मिटाने की छोड़िए, उसे छूने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।
गांव में एक ही छोटी दूकान है। सब उसीके ग्राहक हैं। लेकिन अगर उसके पड़ोस में बडी दूकान खुल जाती है तो सहज ही लोगों के पैर उस दुकान की ओर मुड़ते हैं। पुरानी दूकान का मालिक नई दूकान को नष्ट कर नएपन को ललचाए हुए अपने ग्राहकों को वापिस नहीं पा सकता, लेकिन अगर वह अपनी दूकान का जीर्णोद्धार कर उसे नई दुकान की बराबरी का या उससे अधिक चकाचौंधवाला बना दे तो ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उसे कुछ और नहीं करना पड़ता।
अपने धर्म की कुरीतियां, पुराने पड़ चुके रीति-रिवाज, अतार्किक प्रथाएं नष्ट कर या उनके नवीनीकरण के सहारे अगर इंसान को बांधा जा सके तो हर धर्म की श्रेष्ठता स्वयं साबित हो सकती है। धर्म किसी एक वर्ग के वश में नहीं, बल्कि सर्वसमावेशक होना चाहिए ताकि ऊंच-नीच के अहसास का शिकार बन उसका कोई अनुयायी न आततायी बने, न अलगाव महसूस करे और न उसके मन में अपने को श्रेष्ठ साबित करने की मंशा जागे।
भलाई की सब बातें शुरू शुरू में असंभव, कपोलकल्पित लगती हैं। किसने सोचा था कि इंसान हवा में उड़ सकता है, पानी पर तैर सकता है, दो निश्चित स्थानों के बीच की लंबी दूरियां इत्मीनान से, बड़े आराम के साथ तय कर सकता है? आज का इंसान यह सब कर लेता है। इतना ही आसान हो सकता है समाज में रहनेवाले जीवों को सामाजिक बनाना।
अपने, पास-पडोस के, जाति-धर्म के, देश के, देशों के, दुनिया के, ब्रह्मांड के भले के लिए शांतिपूर्ण जीवन को बढ़ावा देना हो तो सबसे पहले हिंसा की, पर विजय की, स्वश्रेष्ठता की भावना को त्यागना होगा। इंसानों को, इंसानों की बनाई समाज-व्यवस्था को इंसानियत के भले की सोचनी होगी। शांतिपूर्ण स्थितियों में ही यह संभव है। शांति में बडी शक्ति है। सही निर्णय तक पहुंचने के लिए किया गया अपनी राय का तात्कालिक विरोध सार्वजनिक रूप से निर्णय तक पहुंचने के बाद विरोधकों को भी ससम्मान स्वीकारना होगा। यह तभी संभव हो सकता है जब स्व नहीं, सर्वजन महत्वपूर्ण हों। सब लोगों का सुख और शांतिमय जीवन ही समाज और समाजधुरीणों का एकमात्र लक्ष्य हो।
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शब्दार्थ -
आपद्धर्म :
1. ऐसा दूषित निंदनीय या वर्जित आचरण या व्यवहार जो आपत्तिकाल में
विवशता पूर्वग्रहण किया जा सकता हो और इसी लिए दूषित न माना जाता हो।
2. किसी वर्ण के लिए वह व्यवसाय या काम जो दूसरा कोई जीवनोपाय न होने
की ही दशा में ग्रहण किया जा सकता हो।
3. A
conduct permissible only in times of extreme distress
(http://shabdkosh.raftaar.in/)