Wednesday, November 13, 2013

विद्रोह और समर्पण

©संध्या पेडणेकर
झूले का रिश्ता बचपन के साथ जुड़ा है। ऐसा व्यक्ति बिरला ही होगा जिसने बचपन में कभी झूला नहीं झूला हो। बचपन के साथ जुड़े झूले की पेंगें जीवनपर्यंत मन को झुलाती रहती हैं। व्यक्ति अपनी पसंद के झूले पर जीवन भर पेंगें लेता रहता है। झूले की एक पेंग जिस प्रकार दो विरुद्ध दिशाओं को छूकर आती है और उसके साथ मन कभी ऊपर और कभी नीचे ऊभचूभ होता है उसी प्रकार इंसान की पसंद उसे दो ध्रुवों तक झुलाती है।
अक्सर अपने व्यक्तित्व को विशिष्ट छवि में पेश करने के लिए लोग अपनी पसंद को एक ही दिशा देना चाहते हैं। हालांकि इसे सहज स्थिति नहीं कहा जा सकता। पानी का उदाहरण लीजिए। पानी का मूल स्वभाव प्रवाही है, जिस चीज में रखो वह उसीकी शकल अख़्तियार कर लेगा, लेकिन मौका मिलते ही राह तलाश कर वह अपने मूल रूप में प्रकट होता है। व्यक्ति भी बहते पानी की तरह, झूले की पेंगों की तरह, पेंडुलम के डोलने की तरह अलग अलग दिशाओं को अपनी कल्पना के सहारे याकि दूसरों की व्यक्त कल्पना के उड़नखटोले पर सवार होकर छू आता है। यह तन्मयता उसके मन की स्थितियां होती हैं, संपूर्ण मन के विस्तार का कोई आर-पार नहीं। मन की विशिष्ट स्थिति को ही संपूर्ण मानने की भ्रांति हम कभी कर बैठते हैं।
हाल ही में किसीने मेरा ध्यान मेरी पसंद के दो गीतों की तरफ दिलाया। उन दो गीतों में व्यक्त भाव परस्परविरुद्ध हैं और एक ही व्यक्ति को इसप्रकार के परस्परविरुद्ध भाव कैसे पसंद आ सकते हैं यह उनका असमंजस था। विद्रोह और समर्पण के भाव से परिपूर्ण ये गीत मुझे इतने पसंद हैं कि बार बार सुनने के बावजूद मन पर उनकी पकड़ ढीली नहीं पड़ती।
पहला गीत फैज़ अहमद फैज़ का लिखा हुआ और इकबाल बानो का गाया हुआ है। गीत का मुखडा है – हम देखेंगे..... गीत की पृष्ठभूमि से लेकर बोल*, अर्थ*, धुन, अदायगी और गीत सुन कर मन में जागनेवाले भाव सब विद्रोही तेवर लिए हैं। परिणामों की चिंता किए बगैर अपनी बात पर डटे रहने का कुछ कुछ उद्दामता की ओर झुकनेवाला यकीन इस नज़्म में हमें दिखाई देता है। इसमें कवि कहता है कि – भगवान के बनाए हुए जीवों में से कुछ राज करते हैं, कुछ पर राज चलता है। एक दिन मगर ऐसा ज़रूर आएगा जब सभी जीव एकसमान होंगे। तब राज सबका होगा - आपका भी और हमारा भी। तब हम सबमें बसनेवाले खुदा का राज चलेगा। हमें उस दिन का इंतज़ार है।
पाकिस्तान के हुक्मरान ज़िया उल हक ने जब हिंदुस्तानी लिबास ‘साड़ी’ पहनने पर पाबंदी लगाई थी तब लाहौर के स्टेडियम में करीब 50000 लोगों की भीड़ के सामने इक़बाल बानो ने काली साड़ी पहनकर यह नज़्म गाई थी। यू ट्यूब पर इसकी लिंक है- http://www.youtube.com/watch?v=dxtgsq5oVy4 इसमें व्यक्त भाव मन में वीरतापूर्ण जोश भर देता है। गीत एक ओर जहां तानाशाहों को आगाह करता है वहीं दूसरी ओर मजलूमों के मन में हिम्मत पैदा करता हुआ अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस पैदा करता है। इक़बाल बानो के स्वर में फैज़ अहमद फैज़ के बोल इस प्रस्तुति में ऐसे लरजे हैं कि प्रस्तुति की आखिर में जनता ने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाए जो इस लिंक में सुने जा सकते हैं।  
दूसरा गीत आमीर खुसरो का लिखा हुआ है। रोजमर्रा के जीवन से उठाए गए बिंबों से आध्यात्मिक अर्थ व्यक्त करने में आमीर खुसरो का कोई सानी नहीं। उनके जिस गीत का संदर्भ मैं यहां देना चाहती हूं उसका मुखड़ा है – मोसे बोल ना बोल.... जिससे प्रेम है उसके अलावा बाकी दुनिया यहां नायिका के लिए कोई मायने नहीं रखती। यहां तक कि, नायक की बेरुखी भी उसके समर्पण भाव के आडे नहीं आती। सूफियाना अंदाज के समर्पण भाव से यह गीत लबरेज है। बोल हैं** अर्थ है** गायक हैं फरीद अयाज़ और अबू मोहम्मद। यू ट्यूब पर इसकी लिंक है http://www.youtube.com/watch?v=YMe-6pu7m-Y या https://m.youtube.com/watch?v=9IkxUibjlkk या
गीत की शुरुआत में गाया दोहा संत कवि सूरदास का है। परमात्मा की बेरुखी के बावजूद उसके प्रति भक्ति में कोई फेर न आने देनेवाले भक्त का समर्पण भाव यहां व्यक्त है। उपमा आम जीवन की रिश्तेदारी से ली गई हैं और इतनी फिट कि मायने अपने आप व्यक्त होते जाएं। आराध्य को प्रेमी और अपने को नायिका मानने का मधुरा भक्ति भाव यहां व्यक्त है। नायिका के मिस कवि कहते हैं- भगवान, मेरा तुम्हारे प्रति ऐसा समर्पण है कि अब हमारे रिश्ते को तुम्हारे समर्थन की ज़रूरत नहीं। तुम बोलो या न बोलो, मेरी सुनो या न सुनो मैं कभी तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगी। आगे नायिका रिश्तेदारियों, सास-ननद, पास-पड़ोसियों की परवाह न होने की बात भी कहती है। नायिका के बहाने खुसरो भगवान से कहते हैं कि मेरा समर्पण तुम्हारी स्वीकृति का मोहताज नहीं।      
सो, फिर आते हैं मेरे इस लेख के विषय पर। असल में पूछनेवाले का असमंजस यह था कि परस्पर विरुद्ध भाव के गीत एक व्यक्ति को कैसे पसंद आ सकते हैं? एक गीत उद्दाम चुनौती देनेवाला और दूसरा बिना किसी शर्त के समर्पण में झुकने वाला। उनके मतानुसार हमें अक्सर वही चीजें पसंद आती हैं जो अपने व्यक्तित्व, अपने मत, अपने विचार, अपनी संस्कृति, अपना झुकाव जिसतरफ हो उसी के साथ मेल खानेवाली होती हैं। उनका सवाल यह था कि जिस व्यक्ति को विद्रोही तेवर वाला भाव पसंद आता है उसे समर्पण वाला भाव कैसे पसंद आएगा?
मुझे उनकी सोच मजेदार लगी।
मुझे लगा, भाव विद्रोह का हो या समर्पण का, संपूर्णता की वे केवल छटाएं हैं इसका ध्यान रखते हुए हमें हर कला की हर प्रस्तुति का सम्मान करना चाहिए। कला का प्रकटीकरण भले व्यक्तित्व का प्रतीकरूप हो लेकिन प्रकट कला का गुणग्रहण व्यक्तित्व या विचारों से अधिक प्रभावी प्रकटीकरण पर ज्यादा निर्भर करता है। गुणग्राहक व्यक्तित्व जरूरी नहीं कि समान विचारोंवाला ही हो। पसंद के कोई दायरे नहीं होते। कला को अपनी मान्यताओं के गज से नापनेवाले कला के गुणग्राहक नहीं हो सकते, अगर कोई ऐसी धृष्टता करता है तो उसे  अपनी तरह का तानाशाह कहा जा सकता है। तानाशाह कला की घेराबंदी करते हैं। कला की गुणग्राहकता के लिए व्यक्तित्व में उदारता की दरकार होती है। प्रकृति जैसी उदारता। अपना भिन्नत्व सलामत रख कर सहभाव से जीने की इज़ाजत जैसी प्रकृति में दिखाई देती है वैसी ही उदारता जब इंसानों के मन में पनपेगी तब कोई भाव पराया या अवांछित नहीं होगा। तब गीतों में व्यक्त भाव को दाद देने पर व्यक्ति की अपनी मान्यताएं डांवाडोल होती-सी नहीं लगेंगी।
असल में, आज हम अपनी छवि को सम्हाल कर जीने के इतने आदी हो चले हैं कि अपनी या समाज की मान्यताओं से मेल न खानेवाली बातों को तुरंत अपने जीवन से, यहां तक कि खयालों से (ऑनर किलिंग जैसे मामलों में दुनिया से) भी बेदखल कर देना चाहते हैं। जीने का, पनपने का, अपने को व्यक्त करने का हक हरेक को है इस बात को भुला कर। जीवन जीने का यह सही तरीका नहीं और न ही यह किसी कलाविष्कार को परखने का सही पैमाना होगा। कला के किसी भी प्रकटीकरण को निश्चित सीमा में, परिधि में बांधा नहीं जा सकता। उदार मन को हर कलाविष्कार अभिभूत करता है।
कलाकार बनना न बनना अपने बस में नहीं, उदारमना हम ज़रूर बन सकते हैं। हमारी मान्यताएं अगर हमें बेहतर दाद देनेवाले बनने से रोकती हैं तो निस्संकोच हमें उनका त्याग करना होगा।
कला की छोड़िए, हमारी मान्यताओं ने हमारे मन की ऐसी घेराबंदी की है कि हमने उनके कारण इंसानों के बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं। जाति, धर्म, देश, भाषा, धन, कुल कितनी सारी दीवारें। इन दीवारों को तोड़ना होगा। अपने मन की उदारता को जगाना होगा।
-------------
* Hum Dekhenge
 Hum dekhenge
Lazim hai ke hum bhi dekhenge
Wo din ke jis ka wada hai
Jo lauh-e-azl mein likha hai
Jab zulm-o-sitam ke koh-e-garan
Rooi ki tarah ur jaenge
Hum mehkoomon ke paaon tale
Ye dharti dhar dhar dharkegi
Aur ahl-e-hakam ke sar oopar
Jab bijli kar kar karkegi
Jab arz-e-Khuda ke kaabe se
Sab but uthwae jaenge
Hum ahl-e-safa mardood-e-harm
Masnad pe bethae jaenge
Sab taaj uchale jaenge
Sab takht girae jaenge
Bas naam rahega Allah ka
Jo ghayab bhi hai hazir bhi
Jo manzar bhi hai nazir bhi
Utthega an-al-haq ka nara
Jo mai bhi hoon tum bhi ho
Aur raaj karegi Khalq-e-Khuda
Jo mai bhi hoon aur tum bhi ho

*Translation
We shall Witness
It is certain that we too, shall witness
the day that has been promised
of which has been written on the slate of eternity
When the enormous mountains of tyranny
blow away like cotton.
Under our feet- the feet of the oppressed-
when the earth will pulsate deafeningly
and on the heads of our rulers
when lightning will strike.
From the abode of God
When icons of falsehood will be taken out,
When we- the faithful- who have been barred out of sacred places, will be seated on high cushions
When the crowns will be tossed,
When the thrones will be brought down.
Only The name will survive
Who cannot be seen but is also present
Who is the spectacle and the beholder, both
I am the Truth- the cry will rise,
Which is I, as well as you
And then God's creation will rule
Which is I, as well as you
------------------------------------------------

**Mose Bol Ya Na Bol
Mo se bol na bol, meri sun ya na sun
Mein to tohe naa chhoruungii ai sanvare 
Baanh churrai jaat ho, Nibal jaan ke mohay,
Hirday main say jaavoo gay, tub marad baton gee tohay
Mori saas nanandiaa phiri to phiri
Mosay phir kiyon na jaey sabbi gaon ray
Ek tu na phiray mo sa,y ae meray piyaray
Main bhi to aee teri chhaon ray
Rahee laaj sharam ki baat kahan
Jab prem kay phanday diyo paon ray
Nijam ko lal Fakhardin piyaray
Tumrii kahoo ke main kit jaauun re?
Bagar kay log lagai hamka Dharat naam to dharo naon ray
Main to apnii Mauj se rahoongi tore sang 
Main to yahee na chukuun rahunn thaam ray

**Translation (On qawwalimuseum.com)
Speak to me or not, hear me out or not.
I shall not let go of you, O’ my sanware!
You snatch my hand away, imagining me weak.
Try pulling out of my heart and then ill call you a man.
Let my mother-in-law and my sister-in-law turn away from me;
What does it matter if the whole village leaves me?
Only you must not abandon me,
O’ my beloved, I have come under your shadow.
Now remains what scope for talk of bashfulness and shame?
When my feet are snared in the shackles of love Fakhar Din is dear to Nizam, his darling
Tell me, if I were to leave you, where could I go?
Let the people of the town revile me;
Call me by any name they wish.  I shall, Mauj, live with you
In ecstasy, as I please.
I shall never leave you
I shall remain where I am
Reference - http://www.qawwalimuseum.com/?cat=11