जी मराठी पर 26 अगस्त के दिन शाम 7 बजे मराठी की एक फिल्म प्रदर्शित होने जा रही है - काकस्पर्श। महेश मांजरेकर निर्देशित और ग्रेट मराठा एंटरटेनमेंट एलएलपी द्वारा निर्मित यह मराठी फिल्म 4 मई को थिएटरों में प्रदर्शित हुई और लोगों द्वारा खूब सराही गई। इस फिल्म के निर्माता हैं मेधा मांजरेकर और अनिरुद्ध देशपांडे। उषा दातार के उपन्यास "विलक्षण" पर आधारित इस फिल्म के संवाद लिखे हैंगिरीश जोशी ने।
काकस्पर्श में 1930 और 1955 के दरमियानवाले समय का चित्रण किया गया है। फिल्म की कथा कोंकण स्थित रानडे परिवार के गिर्द बुनी हुई है। पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी घर के बड़े पुत्र हरिदादा के कंधों पर आती है। वे इस जिम्मेदारी का अपनत्व के साथ वहन भी करते हैं। बहन की शादी करा देते हैं। बूढ़ी बुआ का खयाल रखते हैं। मुंबई में रह कर कानून की पढ़ाई करनेवाले अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा उठाते हैं और अपने परिवार का भी पूरा खयाल रखते हैं। अपनी पत्नी से उन्हें लगाव है।
फिल्म की शुरुआत उस दृश्य के साथ होती है जिसमें हरिदादा अपने छोटे भाई महादेव का पिंडदान करा रहे होते हैं। 13 वर्षीया उमा के साथ उनकी शादी होती है लेकिन सुहाग रात को अचानक महादेव की मृत्यु होती है। देर तक कोई कौआ पिंड को छूता नहीं इसलिए हरिदादा आगे बढ़ कर कौओं से कहते हुए से मुंह ही मुंह में कुछ बुदबुदाते हैं। उसके बाद कौए पिंड पर टूट पड़ते हैं। फिल्म के अंत में इस बात का खुलासा होता है कि हरिदादा ने कौओं से ऐसा क्या कहा कि जिसके कारण कौओं ने पिंडदान स्वीकारा।
फिल्म की कथा 13 वर्ष की विधवा उमा पर केंद्रित है। प्रचलित अन्यायकारी रीतिरिवाजों से उसकी रक्षा करने के लिए तत्पर हरिदादा की कोशिशें कथा का प्राण हैं। उनकी इन कोशिशों का उनके परिवार के सदस्यों पर, खासकर उनकी पत्नी पर जो असर होता है उसका चित्रण इस फिल्म में किया गया है। सामाजिक कुरीतियों का विरोध करनेवाले इस परिवार के खिलाफ समाज की ओर से किए जानेवाले अत्याचारों का भी इसमें कुछ हद तक चित्रण है जिससे कि हरिदादा की चारित्रिक विशेषताएं स्पष्ट होती हैं और तत्कालीन समाज का चित्र दर्शकों के आगे स्पष्ट होता है।
फिल्म के कुछ कमजोर पक्ष भी हैं लेकिन प्रस्तुति के कुल प्रभाव को वे बाधित नहीं करती इसलिए उनका जिक्र यहां अनावश्यक है। फिल्म दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ जाती है। 13 वर्ष की उम्र में अनदेखे व्यक्ति के साथ विवाह (लड़की देखने की रस्म के समय उमा हरिदादा को ही वर समझती है, माता-पिता से बात साफ किए जाने पर वह महादेव को देखने दौड़ती है लेकिन देख नहीं पाती), अचानक आन पड़े वैधव्य के संकट का सामना, सिर मुंडाना जैसे रिवाजों का विरोध करने के कारण उठाने पडे दुख और डर, जीवन की निरुद्देश्यता, खालीपन, हर बात में मन को मारने की लाचारी और इन सबके कारण घेरनेवाली निराशा उमा की भूमिका निभानेवाली दो अभिनेत्रियों ने बखूबी निभाई है। उमा की बचपन की भूमिका निभाई है केतकी माटेगावकर ने। बड़ी उमा की भूमिका निभाई है प्रिया बापट ने। जीवन में क्या नहीं पाया यह जानने की उमा की छटपटाहट दिल को मरोड देती है।
हरिदादा की पत्नी की भूमिका निभाई है मेधा मांजरेकर ने। ससुराल में छोटी उमा की वह मां बन जाती हैं। लेकिन आगे चल कर उसे उमा को लेकर अपने पति पर शक होता है और उमा से ईर्ष्या होती है। बीमारी के कारण बिस्तर पकड लेती हैं तब उनकी लाचारी और गहराती है। मेधा मांजरेकर ने भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। पूरा जीवन खलनायिका के रूप में बिताने के लिए मजबूर विधवा बुआ की भूमिका बखूबी निभाई है सविता मालपेकर ने। इस भूमिका के लिए सुना कि उन्होंने वास्तव में अपना सिर मुंडाया था।
हरिदादा इस फिल्म के नायक हैं और यह प्रमुख भूमिका निभाई है सचिन खेडेकर ने। इस फिल्म में उनका अभिनय वास्तविकता की हदों को छूता हुआ लगता है। पहली नज़र में उमा उन्हें भी पसंद आती है लेकिन महादेव की मौत के बाद उमा के पुनर्विवाह की बात को वे टाल जाते हैं, उमा के सिर मुंडाने का घोर विरोध करते हैं, हर मुश्किल घडी में उसके रक्षक बन कर अड जाते हैं तो पूरा गांव उनके संबंधों को शक की निगाह से देखने लगता है। पत्नी की मृत्यु के बाद उमा के मन में अपने लिए पल रहे प्रेम के अंकुर के बारे में जानते हुए भी वे उससे विवाह की बात टाल जाते हैं। भाई की आत्मा को दिए हुए वचन की पूर्तता में वे खुद अपनी भावनाओं को भी मारते हैं।
कुल मिला कर कहानी के इन मुख्य किरदारों के इर्दगिर्द कहानी का तानाबाना बुना हुआ है। कहानी का अंत अप्रत्याशित होते हुए भी कथानक की मांग के अनुसार योग्य ही कहा जा सकता है। इस फिल्म का प्रचार-प्रसार "एक विलक्षण प्रेमकहानी" के तौर पर किया गया है जो कि कथानक की कुल व्याप्ति के साथ न्याय नहीं करता, पूरी प्रस्तुति को एकांगी बनाता है। फिल्म के जरिए तत्कालीन समाज का प्रतिबिंब बेहद सशक्त रूप से दर्शक के सामने यह फिल्म प्रस्तुत करती है। आंख मूंद कर परंपराओं का पालन करने के बारे में, रीति-रिवाजों के अनुसार चलने के प्रति सचेत कराते हुए वह दर्शक को इस बात का अहसास कराती है कि केवल हमारे दादा-परदादा किया करते थे इसीलिए हर बात सही साबित नहीं होती। स्थितियों के अनुसार व्यक्ति को हमेशा अपने विवेक के सहारे ही निर्णय लेना होता है। कथानक की कुछ और कमज़ोरियां भी हैं लेकिन वे कथा के कुल प्रवाह में बाधक नहीं होने के कारण उनका जिक्र करना मैं यहां ज़रूरी नहीं समझती। 'काकस्पर्श' शब्द मराठी लोकमानस में सिर्फ 'पिंडदान' का संदर्भ नहीं जगाता। काकस्पर्श के साथ पिंडदान से बृहदार्थ में जुड़ा हुआ संदर्भ है मनहूसियत। कौए का स्पर्श अपवित्र और अपशगुनी माना जाता रहा है। केवल पिंडदान के समय ही काकस्पर्श वांछित बताया जाता है अन्था वह पूरी तरह वर्जित है। और फिल्म के किरदारों के जीवन में महादेव के पिंडदान के बाद हुए काकस्पर्श का अंजाम फिल्म के अंत तक आते आते स्पष्ट होता जाता है जोकि दर्शक के मन को विषाद से भर देता है।
फोटोग्राफी उम्दा है और फिल्म में निर्मित वातावरण दमदार है। वह दर्शक को सहज ही इतिहास के उस कालखंड में पहुंचाता है जिसमें यह कथानक घटित होता है। फिल्म के गीत कालानुरूप और श्रवणीय हैं जिनकी यू-ट्यूब लिंक्स में यहां जोड़ रही हूं, अवश्य सुनें।
आजकल की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में नकली चमक-दमक, अंटशंट दृष्य, अवास्तविकतापूर्ण हिंसा, फैशनपरस्ती के नाम पर अंग प्रदर्शन, आधुनिकता के नाम पर व्यसनाधीनता और कमीनापन दिखाने तक सीमित होता दिखाई दे रहा है। हिंदी फिल्में वास्तविक धरातल से जैसे जैसे दूर जाती रहेंगी वैसे वैसे लोगों के ऊपर उनकी पकड ढीली होती जाएगी। आंतरराष्ट्रीय फिल्मों का मार्केट इसी बात के संकेत दे रहा है। आंकडे बता रहे हैं कि आजकल आंतरराष्ट्रीय बाजार पर क्षेत्रीय फिल्में छायी हुई हैं। कम लागत में, कम समय में बननेवाली अर्थपूर्ण, दिल को छू लेनेवाली, वास्तववादी और सोद्देश्य फिल्में कुछ बड़े बजट की, चमत्कारपूर्ण दृश्यों से भरी, अर्थहीन, ऊटपटांग कथानक और प्रस्तुतिवाली, मर्यादाविहीन और हीन अभिरुचि की हिंदी फिल्मों को मात दे रही हैं। हिंदी फिल्मों के आंतरराष्ट्रीय बाजार के एकाधिकार में क्षेत्रीय फिल्मों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है।
फिल्म के गीत यहां सुनें -
1. http://www.youtube.com/watch?v=11k7pym7Efo
2. http://www.youtube.com/watch?v=818YYByaDtA
3. http://www.youtube.com/watch?v=AftNHd-vwlc
4. http://www.youtube.com/watch?v=Muc4RtzWCoE
काकस्पर्श में 1930 और 1955 के दरमियानवाले समय का चित्रण किया गया है। फिल्म की कथा कोंकण स्थित रानडे परिवार के गिर्द बुनी हुई है। पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेदारी घर के बड़े पुत्र हरिदादा के कंधों पर आती है। वे इस जिम्मेदारी का अपनत्व के साथ वहन भी करते हैं। बहन की शादी करा देते हैं। बूढ़ी बुआ का खयाल रखते हैं। मुंबई में रह कर कानून की पढ़ाई करनेवाले अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा उठाते हैं और अपने परिवार का भी पूरा खयाल रखते हैं। अपनी पत्नी से उन्हें लगाव है।
फिल्म की शुरुआत उस दृश्य के साथ होती है जिसमें हरिदादा अपने छोटे भाई महादेव का पिंडदान करा रहे होते हैं। 13 वर्षीया उमा के साथ उनकी शादी होती है लेकिन सुहाग रात को अचानक महादेव की मृत्यु होती है। देर तक कोई कौआ पिंड को छूता नहीं इसलिए हरिदादा आगे बढ़ कर कौओं से कहते हुए से मुंह ही मुंह में कुछ बुदबुदाते हैं। उसके बाद कौए पिंड पर टूट पड़ते हैं। फिल्म के अंत में इस बात का खुलासा होता है कि हरिदादा ने कौओं से ऐसा क्या कहा कि जिसके कारण कौओं ने पिंडदान स्वीकारा।
फिल्म की कथा 13 वर्ष की विधवा उमा पर केंद्रित है। प्रचलित अन्यायकारी रीतिरिवाजों से उसकी रक्षा करने के लिए तत्पर हरिदादा की कोशिशें कथा का प्राण हैं। उनकी इन कोशिशों का उनके परिवार के सदस्यों पर, खासकर उनकी पत्नी पर जो असर होता है उसका चित्रण इस फिल्म में किया गया है। सामाजिक कुरीतियों का विरोध करनेवाले इस परिवार के खिलाफ समाज की ओर से किए जानेवाले अत्याचारों का भी इसमें कुछ हद तक चित्रण है जिससे कि हरिदादा की चारित्रिक विशेषताएं स्पष्ट होती हैं और तत्कालीन समाज का चित्र दर्शकों के आगे स्पष्ट होता है।
फिल्म के कुछ कमजोर पक्ष भी हैं लेकिन प्रस्तुति के कुल प्रभाव को वे बाधित नहीं करती इसलिए उनका जिक्र यहां अनावश्यक है। फिल्म दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ जाती है। 13 वर्ष की उम्र में अनदेखे व्यक्ति के साथ विवाह (लड़की देखने की रस्म के समय उमा हरिदादा को ही वर समझती है, माता-पिता से बात साफ किए जाने पर वह महादेव को देखने दौड़ती है लेकिन देख नहीं पाती), अचानक आन पड़े वैधव्य के संकट का सामना, सिर मुंडाना जैसे रिवाजों का विरोध करने के कारण उठाने पडे दुख और डर, जीवन की निरुद्देश्यता, खालीपन, हर बात में मन को मारने की लाचारी और इन सबके कारण घेरनेवाली निराशा उमा की भूमिका निभानेवाली दो अभिनेत्रियों ने बखूबी निभाई है। उमा की बचपन की भूमिका निभाई है केतकी माटेगावकर ने। बड़ी उमा की भूमिका निभाई है प्रिया बापट ने। जीवन में क्या नहीं पाया यह जानने की उमा की छटपटाहट दिल को मरोड देती है।
हरिदादा की पत्नी की भूमिका निभाई है मेधा मांजरेकर ने। ससुराल में छोटी उमा की वह मां बन जाती हैं। लेकिन आगे चल कर उसे उमा को लेकर अपने पति पर शक होता है और उमा से ईर्ष्या होती है। बीमारी के कारण बिस्तर पकड लेती हैं तब उनकी लाचारी और गहराती है। मेधा मांजरेकर ने भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। पूरा जीवन खलनायिका के रूप में बिताने के लिए मजबूर विधवा बुआ की भूमिका बखूबी निभाई है सविता मालपेकर ने। इस भूमिका के लिए सुना कि उन्होंने वास्तव में अपना सिर मुंडाया था।
हरिदादा इस फिल्म के नायक हैं और यह प्रमुख भूमिका निभाई है सचिन खेडेकर ने। इस फिल्म में उनका अभिनय वास्तविकता की हदों को छूता हुआ लगता है। पहली नज़र में उमा उन्हें भी पसंद आती है लेकिन महादेव की मौत के बाद उमा के पुनर्विवाह की बात को वे टाल जाते हैं, उमा के सिर मुंडाने का घोर विरोध करते हैं, हर मुश्किल घडी में उसके रक्षक बन कर अड जाते हैं तो पूरा गांव उनके संबंधों को शक की निगाह से देखने लगता है। पत्नी की मृत्यु के बाद उमा के मन में अपने लिए पल रहे प्रेम के अंकुर के बारे में जानते हुए भी वे उससे विवाह की बात टाल जाते हैं। भाई की आत्मा को दिए हुए वचन की पूर्तता में वे खुद अपनी भावनाओं को भी मारते हैं।
कुल मिला कर कहानी के इन मुख्य किरदारों के इर्दगिर्द कहानी का तानाबाना बुना हुआ है। कहानी का अंत अप्रत्याशित होते हुए भी कथानक की मांग के अनुसार योग्य ही कहा जा सकता है। इस फिल्म का प्रचार-प्रसार "एक विलक्षण प्रेमकहानी" के तौर पर किया गया है जो कि कथानक की कुल व्याप्ति के साथ न्याय नहीं करता, पूरी प्रस्तुति को एकांगी बनाता है। फिल्म के जरिए तत्कालीन समाज का प्रतिबिंब बेहद सशक्त रूप से दर्शक के सामने यह फिल्म प्रस्तुत करती है। आंख मूंद कर परंपराओं का पालन करने के बारे में, रीति-रिवाजों के अनुसार चलने के प्रति सचेत कराते हुए वह दर्शक को इस बात का अहसास कराती है कि केवल हमारे दादा-परदादा किया करते थे इसीलिए हर बात सही साबित नहीं होती। स्थितियों के अनुसार व्यक्ति को हमेशा अपने विवेक के सहारे ही निर्णय लेना होता है। कथानक की कुछ और कमज़ोरियां भी हैं लेकिन वे कथा के कुल प्रवाह में बाधक नहीं होने के कारण उनका जिक्र करना मैं यहां ज़रूरी नहीं समझती। 'काकस्पर्श' शब्द मराठी लोकमानस में सिर्फ 'पिंडदान' का संदर्भ नहीं जगाता। काकस्पर्श के साथ पिंडदान से बृहदार्थ में जुड़ा हुआ संदर्भ है मनहूसियत। कौए का स्पर्श अपवित्र और अपशगुनी माना जाता रहा है। केवल पिंडदान के समय ही काकस्पर्श वांछित बताया जाता है अन्था वह पूरी तरह वर्जित है। और फिल्म के किरदारों के जीवन में महादेव के पिंडदान के बाद हुए काकस्पर्श का अंजाम फिल्म के अंत तक आते आते स्पष्ट होता जाता है जोकि दर्शक के मन को विषाद से भर देता है।
फोटोग्राफी उम्दा है और फिल्म में निर्मित वातावरण दमदार है। वह दर्शक को सहज ही इतिहास के उस कालखंड में पहुंचाता है जिसमें यह कथानक घटित होता है। फिल्म के गीत कालानुरूप और श्रवणीय हैं जिनकी यू-ट्यूब लिंक्स में यहां जोड़ रही हूं, अवश्य सुनें।
आजकल की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में नकली चमक-दमक, अंटशंट दृष्य, अवास्तविकतापूर्ण हिंसा, फैशनपरस्ती के नाम पर अंग प्रदर्शन, आधुनिकता के नाम पर व्यसनाधीनता और कमीनापन दिखाने तक सीमित होता दिखाई दे रहा है। हिंदी फिल्में वास्तविक धरातल से जैसे जैसे दूर जाती रहेंगी वैसे वैसे लोगों के ऊपर उनकी पकड ढीली होती जाएगी। आंतरराष्ट्रीय फिल्मों का मार्केट इसी बात के संकेत दे रहा है। आंकडे बता रहे हैं कि आजकल आंतरराष्ट्रीय बाजार पर क्षेत्रीय फिल्में छायी हुई हैं। कम लागत में, कम समय में बननेवाली अर्थपूर्ण, दिल को छू लेनेवाली, वास्तववादी और सोद्देश्य फिल्में कुछ बड़े बजट की, चमत्कारपूर्ण दृश्यों से भरी, अर्थहीन, ऊटपटांग कथानक और प्रस्तुतिवाली, मर्यादाविहीन और हीन अभिरुचि की हिंदी फिल्मों को मात दे रही हैं। हिंदी फिल्मों के आंतरराष्ट्रीय बाजार के एकाधिकार में क्षेत्रीय फिल्मों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है।
फिल्म के गीत यहां सुनें -
1. http://www.youtube.com/watch?v=11k7pym7Efo
2. http://www.youtube.com/watch?v=818YYByaDtA
3. http://www.youtube.com/watch?v=AftNHd-vwlc
4. http://www.youtube.com/watch?v=Muc4RtzWCoE