Thursday, August 23, 2012

मन का मन से संवाद

संत तुकाराम
-संध्या पेडणेकर
मराठी संत साहित्य में संत तुकाराम का बड़ा योगदान है। जीवन, दुनिया, भक्त, भगवान और अपनी स्थिति का वर्णन करनेवाली उनकी कई रचनाओं की सादगी, उनमें व्यक्त होनेवाली उनकी जीवनदृष्टि मन पर गहरा असर डालती है। उनका एक प्रसिद्ध अभंग इसप्रकार है -

"वृक्ष वल्ली आम्हां सोयरीं वनचरें। पक्षी ही सुस्वरें आळविती।।1।।
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास। नाहीं गुणदोष अंगा येत।।धृ।।
आकाश मंडप पृथुवी आसन। रमे तेथें मन क्रीडा करी।।2।।
कंथाकुमंडलु देह उपचारा। जाणवितो वारा अवश्र्वरु।।3।।
हरिकथा भोजन परवडी विस्तार। करोनी प्रकार सेवूं रुची।।4।।
तुका म्हणे होय मनासी संवाद। आपुला चि वाद आपणासी।।5।।"

कई विद्वानों ने उनके इस अभंग का कई अंगों से विश्लेषण किया है।  तुकाराम को प्रकृति से कितना लगाव था, पेड़-पौधों को वे अपने सगेसंबंधी कैसे मानते थे, उनका दृष्टिकोण कितना विशाल था, कैसे वे पूरी धरती को अपना आंगन और आकाश को छत मानते थे, भगवान के प्रति उनकी भक्ति ऐसी थी कि हरि की कथा कहना ही वे भोजन मानते थे जिसके भोग से उनकी आत्मा तृप्त हुआ करती थी, भगवत्भक्ति में लीन तुकाराम कैसे अपने आप से संवाद करते थे वगैरा। तुकाराम के जीवन से इस पद को अलग किया जाए, केवल यहां इस अभंग में दर्ज शब्दों के जरिए भाव समझा जाए तो हो सकता है यह ठीक भी लगे। लेकिन क्या कवि केवल उसके कहे शब्दों तक ही सीमित होता है? कवि के कहे शब्दों से क्या हमें उसके जीवन की झलक मिल सकती है? अव्वल तो, क्या हमें कवित्व को कवि के जीवनानुभव के साथ अवश्यंभावी रूप से जोड़ कर देखना चाहिए?

एक बड़ा दुरूह सवाल है - संत पैदा होते हैं या परिस्थितियों के कारण बनते हैं?

संत तुकाराम के संदर्भ से बात करें तो कहना पड़ेगा कि मृत्योपरांत भले ही लोगों ने उन्हें संतपद बहाल किया हो, लेकिन जीवनभर समाज के कारण वे परेशान ही रहे। दमक पाने के लिए सोने को जिसतरह भट्टी से होकर गुजरना पड़ता है उसी तरह तुकाराम को भी सामाजिक संकटों की भट्टी में पूरी तरह तपना पड़ा। उनकी जिन कृतियों को आज विश्व स्तर पर श्रेष्ठ भक्ति-साहित्य का दर्जा प्राप्त है उन्हीं कृतियों को उन्हें नदी में बहाना पड़ा था। अपनी कृतियों से अलग होकर कई दिनों तक वे पानी से निकाली गई मछली की तरह तड़पे थे, भूखे-प्यासे रह कर उन्होंने अपने भगवान की गुहार लगाई थी। कहते हैं कि उनकी रचनाएं पानी पर तैरती मिली थीं, बिल्कुल सूखी। इस चमत्कार के बाद ही लोगों ने जीते जी कुछ हद तक उनका संतत्व स्वीकार किया। इन संदर्भों पर गौर करते हुए इस पद में व्याप्त भाव को जानने की कोशिश की जाए तो एक और पहलु देते उजागर होता है - तुकाराम इस पद में समाज की तुलना में वन की महति बता रहे हैं।

पद का भावार्थ है - दुनियावी रिश्ते-नातों से बढ़ कर वन के ये पेड़-पौधे, प्राणि हमारे सगे-संबंधी हैं। लोग आपकी खामियों पर तंज करने से नहीं चूकते और यहां पंछी हमेशा मीठी बोली बोलते रहते हैं ऐसे, मानो आको रिझा रहे हों। यहां सभी प्राणियों के साथ होते हुए भी आप एकांत-साधना कर सकते हैं। कोई आपके दोषों-गुणों की याद नहीं दिलाता। मन मुक्ति की सांस ले सकता है। इसतरह का एकांत मुझे पसंद है क्योंकि इस एकांत के कारण किसी तरह के गुण-दोष देह से चिपकते नहीं। यह मेरा, यह तेरा, उसका-इसका ऐसा भेदभाव यहां नहीं। सबै भूमि गोपाल की का यहां उन्मुक्तता से पालन होता है। किसी के लिए यहां किसी तरह की सीमा निर्धारित नहीं। जहां बैठो सिर पर आकाश का छत है और जहां टिको धरती आपके लिए आसन बन जाती है। किसी तरह की रोक नहीं, पाबंदियां नहीं, भेदभाव नहीं। बेखटके जहां मन करे आया-जाया-खेला जा सकता है। देह की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए गुदडी है, कमंडलु है। हवा की धीमी तेज गति से समय के बीतने का अहसास होता है। समय का भान होता है। हरिकथा का असीमित अनाज है, इस अनाज से अपनी पसंद के व्यंजन बना कर प्रेम से उनका सेवन किया जा सकता है। अपने मन से संवाद होता है, ज्ञान-वैराग्य के बारे में सोचविचार होता है। विचार-विमर्ष के दौरान अगर कोई वितंडा हुआ तो वह अपने आप से ही होता है। क्लेश भी केवल खुद ही को होता है किसी और को नहीं। इसीलिए, वन के एकांत में रहना संत तुकाराम को पसंद था। देहू गांव के पास वाले भांबनाथ के पहाड पर जाकर इसीलिए वे एकांतसाधना किया करते थे।

तुकाराम जैसे निरीह, सत्संगी जीव के मन में समाज के प्रति इतनी अरुचि इसीलिए पैदा हुई क्योंकि उन्हें समाज के कारण कई विपरीत स्थितियों का सामना करना पड़ा। व्यवहारकुशल न होने के कारण तुकाराम अपनी दुकान नहीं चला पाए, अकाल के कारण उनका परिवार दाने-दाने के लिए मुहताज हुआ। अकाल में जब चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी तब उन्होंने अपना अनाज का भंडार भूखे-प्यासे लोगों के लिए खोल दिया। सभी प्राणिमात्रों में वे परमात्मा का अंश देखते थे फिर किसीको भूख-प्यास से बिलबिलाता वे कैसे देख पाते? उसी अकाल ने उनकी प्रथम पत्नी और इकलौते पुत्र को उनसे हमेशा के लिए दूर कर दिया। इस कारण वे जीवन से विन्मुख भी हो सकते थे लेकिन पांडुरंग उनका सहारा था, वही उनकी जीवन नैया का खेवनहार बना।

तुकाराम, ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई, मीराबाई, तुलसीदास..... संतों के चरित्रों से एक बात साबित होती है, उन्हें संत बनाने में दुनिया का उनके साथ का बुरा व्यवहार बहुत हद तक जिम्मेदार होता है। वे जब तक व्यक्ति के तौर पर सामाज के सदस्य होते हैं तब तक समाज उनके साथ बेदर्दी बरतता है, संतपद अधिकतर संतों को मृत्योपरांत ही  संतपद प्राप्त हुआ दिखाई देता है।
लोक में रहते हुए लोगों से उकताए कविहृदय से फिर अपने अलग समाज, सगेसंबंधियों की, संवाद की इसप्रकार घोषणा की जाती है। वन की वृक्ष-लताएं उनके संबंधी होते हैं, उनका अपनेआप से संवाद होता है जिसमें में हरिकथा की मधुरता का पूरे मन से आस्वाद लेते हैं।

कवि कह जाते हैं, पाठक-विश्लेषक उनके लिखे को अपने स्तर पर अर्थविस्तार देते हैं, विश्लेषण करते हैं, प्रतिपादन करते हैं। सागर आपके लिए उतना ही विशाल होता है जितना कि आपका पात्र।