-संध्या पेडणेकर
प्रेम की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है अद्वैत। जहां परस्पर के बीच का द्वैत भाव मिट जाए वहां सभी भेद मिट जाते हैं, सब द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। जीव-शिव एकाकार हो जाते हैं। आसान नहीं है ऐसी स्थिति तक पहुंच पाना, लेकिन जो बिरला पहुंच जाते हैं उनकी वाणी से फिर पांडुरंग के अलावा कोई और नाम नहीं निकलता। यह ब्राह्मण है, यह लिंगायत है, यह मुसलमान है, यह ईसाई है, यह शूद्र है, यह पारसी है, यह कुत्ता है, यह सांप है, यह नेवला है, यह हाथी है जैसे सारे भेद मिट जाते हैं। इन बाहरी रूपों में छिपे परमात्मा के दर्शन होते हैं और सहज ही आत्मज्ञान हो जाता है कि जीव-शिव में जब भेद नहीं तो जीव-जीव में भेद कैसा? संत तुकाराम का एक पद है -
परमात्मा में अपने एकाकार होने का कितना सुंदर वर्णन तुकाराम ने यहां किया है। वह कहते हैं कि पांडुरंगा, अब तुममें और मुझमें किसी तरह का भेद कहां! तुम्हारे नाम की लगन लगी और मन में ऐसा समर्पण भाव जगा कि आत्मा और परमात्मा जैसा कोई भेद नहीं रहा। वह दूरी, वह आप-पर भाव मिट गए। पानी में डालने पर नमक का अलग अस्तित्व कहां बचता है? मैं बिल्कुल पानी में मिले नमक की तरह तुममें एकाकार हो गया हूं। तुम्हारा और मेरा मिलन असामान्य है, ऐसा जैसे आग और कपुर का मिलना। जलनेवाली हर चीज पीछे कालिख छोड जाती है। लेकिन कपुर का अग्नि में एकाकार होना केवल पवित्रता की सृष्टि करता है। कपूर अपने आप में शीतल और सुगंधी है और अग्नि है विशुद्ध तेज, जिसके सामने कोई ठहर नहीं सकता। आग और कपूर का जब मिलन होता है तब पीछे कोई कालिख नहीं बचती। विठुराया, तुम्हारे तेज में मैं कपुर की तरह एकाकार हो गया हूं, अब मेरा कोई अस्तित्व नहीं रहा। आत्मा का परमात्मा की ज्योति से ऐसा मिलन हुआ है कि अब कोई आप पर भाव नहीं बचा।
भक्ति की भावना विश्व और विश्वात्मा से आत्मा को इसी तरह एकाकार करती है। फिर न कोई 'मैं' बचता है और न कोई 'तू'। संसार से पलायन का उपाय नहीं, संसार से पार लगानेवाली एक नाव है भक्ति। मन में लौ जागे तो सारी हदें ढह जाती हैं। अपार-असीम को जानना हो तो उसके साथ तल्लीन होना पहली शर्त है। जाति की, धर्म की, विशिष्ट रूप की सीमाओं के अंदर भक्ति को कैद करना अपराध है ही, अपने आराध्य के लिए बनाए दायरे में अन्यों का प्रवेश वर्जित करना जघन्य अपराध है। उस असीम में एकाकार होकर खुद अनंतत्व पाने के बजाए असीम को सीमित करना है। भक्त हो पानी में घुले नमक की तरह, अग्नि में समाविष्ट प्रकाश की तरह।
प्रेम की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है अद्वैत। जहां परस्पर के बीच का द्वैत भाव मिट जाए वहां सभी भेद मिट जाते हैं, सब द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं। जीव-शिव एकाकार हो जाते हैं। आसान नहीं है ऐसी स्थिति तक पहुंच पाना, लेकिन जो बिरला पहुंच जाते हैं उनकी वाणी से फिर पांडुरंग के अलावा कोई और नाम नहीं निकलता। यह ब्राह्मण है, यह लिंगायत है, यह मुसलमान है, यह ईसाई है, यह शूद्र है, यह पारसी है, यह कुत्ता है, यह सांप है, यह नेवला है, यह हाथी है जैसे सारे भेद मिट जाते हैं। इन बाहरी रूपों में छिपे परमात्मा के दर्शन होते हैं और सहज ही आत्मज्ञान हो जाता है कि जीव-शिव में जब भेद नहीं तो जीव-जीव में भेद कैसा? संत तुकाराम का एक पद है -
"लवण मेळविता जळें। काय उरले निराळें।।1।।
तैसा समरस जालों। तुजमाजी हरपलो।।धृ।।
अग्नि कर्पुराच्या मेळीं। काय उरली काजळी।।2।।
तुका म्हणे होती। तुझी माझी एक ज्योती।।3।।"
- संत तुकाराम
परमात्मा में अपने एकाकार होने का कितना सुंदर वर्णन तुकाराम ने यहां किया है। वह कहते हैं कि पांडुरंगा, अब तुममें और मुझमें किसी तरह का भेद कहां! तुम्हारे नाम की लगन लगी और मन में ऐसा समर्पण भाव जगा कि आत्मा और परमात्मा जैसा कोई भेद नहीं रहा। वह दूरी, वह आप-पर भाव मिट गए। पानी में डालने पर नमक का अलग अस्तित्व कहां बचता है? मैं बिल्कुल पानी में मिले नमक की तरह तुममें एकाकार हो गया हूं। तुम्हारा और मेरा मिलन असामान्य है, ऐसा जैसे आग और कपुर का मिलना। जलनेवाली हर चीज पीछे कालिख छोड जाती है। लेकिन कपुर का अग्नि में एकाकार होना केवल पवित्रता की सृष्टि करता है। कपूर अपने आप में शीतल और सुगंधी है और अग्नि है विशुद्ध तेज, जिसके सामने कोई ठहर नहीं सकता। आग और कपूर का जब मिलन होता है तब पीछे कोई कालिख नहीं बचती। विठुराया, तुम्हारे तेज में मैं कपुर की तरह एकाकार हो गया हूं, अब मेरा कोई अस्तित्व नहीं रहा। आत्मा का परमात्मा की ज्योति से ऐसा मिलन हुआ है कि अब कोई आप पर भाव नहीं बचा।
भक्ति की भावना विश्व और विश्वात्मा से आत्मा को इसी तरह एकाकार करती है। फिर न कोई 'मैं' बचता है और न कोई 'तू'। संसार से पलायन का उपाय नहीं, संसार से पार लगानेवाली एक नाव है भक्ति। मन में लौ जागे तो सारी हदें ढह जाती हैं। अपार-असीम को जानना हो तो उसके साथ तल्लीन होना पहली शर्त है। जाति की, धर्म की, विशिष्ट रूप की सीमाओं के अंदर भक्ति को कैद करना अपराध है ही, अपने आराध्य के लिए बनाए दायरे में अन्यों का प्रवेश वर्जित करना जघन्य अपराध है। उस असीम में एकाकार होकर खुद अनंतत्व पाने के बजाए असीम को सीमित करना है। भक्त हो पानी में घुले नमक की तरह, अग्नि में समाविष्ट प्रकाश की तरह।