विठ्ठल-रखुमाई |
-संध्या पेडणेकर
संत तुकाराम की चुनिंदा रचनाओं का संग्रह है 'तुकाराम गाथा' जिसकी प्रस्तावना में मराठी के सुप्रसिद्ध लेखक भालचंद्र नेमाडे उनके बारे में कहते हैं - "संत तुकाराम भक्तिमार्ग के महान पथप्रदर्शक हैं। संत के रूप में उनका कृतित्व दैदीप्यमान है। साथ ही वे लोकोत्तर प्रतिभाशाली और कालातीत कवि हैं। पिछले साढ़े तीन-सौ सालों से मराठीभाषियों के धार्मिक और सामाजिक विचारों पर तुकाराम की सोच की अमिट छाप है। सुदूर गांवों में भी, घर घर में तुकाराम के अभंग गाए जाते हैं। (अभंग वे भक्तिपूर्ण काव्य रचनाएं हैं, जो ज्यादातर साढ़े तीन चरणों की होती हैं। गेयता के अनुसार उनकी लंबाई घटाई-बढ़ाई जा सकती है। अभंग के एक हिस्से का पूर्ण होना उसके आखरी, यानी चौथे चरण से पता चलता है क्योंकि वह अन्य तीन चरणों की तुलना में कम लंबा होता है। विभिन्न गेय पद्धतियों से तुकाराम की रचनाएं समृद्ध हैं।) कविताओं की ओर लोगों का रुझान उनकी रचनाओं के कारण हुआ है। हर पीढ़ी ने गद्गद् होकर उनके अभंग गाए। उनकी पोथी की प्रतियां बनती रहीं। केवल धार्मिक और अनपढ़ श्रद्धालुओं तक ही उनका प्रभाव सीमित नहीं रहा बल्कि समाज के सभी स्तरों में उनकी गाथा समान रूप से लोकप्रिय है। पिछले साढ़े तीन-सौ सालों में विकसित होते आए मराठी के गद्य और पद्य साहित्य पर गाथा का गहरा प्रभाव है। हर भाषा के इक्के-दुक्के कवि के भाग्य में ऐसा सौभाग्य होता है। जिस प्रकार कबीर, शंकरदेव, तुलसीदास, वेमन्ना, शाह लतीफ या ग़ालिब अपनी भाषाओं के साथ चिरकालिक रूप से जुड़े हुए हैं उसी प्रकार तुकाराम मराठी मन की सार्वकालिक अभिव्यक्ति हैं। आम लोग बुनियादी नैतिकता के रूप में उनके अभंगों का प्रयोग करते हैं। विद्वत्जन अपने कथन को वजन देने के लिए संत तुकाराम के अभंग की पंक्तियां उद्धृत करते हैं।"
संत तुकाराम की चुनिंदा रचनाओं का संग्रह है 'तुकाराम गाथा' जिसकी प्रस्तावना में मराठी के सुप्रसिद्ध लेखक भालचंद्र नेमाडे उनके बारे में कहते हैं - "संत तुकाराम भक्तिमार्ग के महान पथप्रदर्शक हैं। संत के रूप में उनका कृतित्व दैदीप्यमान है। साथ ही वे लोकोत्तर प्रतिभाशाली और कालातीत कवि हैं। पिछले साढ़े तीन-सौ सालों से मराठीभाषियों के धार्मिक और सामाजिक विचारों पर तुकाराम की सोच की अमिट छाप है। सुदूर गांवों में भी, घर घर में तुकाराम के अभंग गाए जाते हैं। (अभंग वे भक्तिपूर्ण काव्य रचनाएं हैं, जो ज्यादातर साढ़े तीन चरणों की होती हैं। गेयता के अनुसार उनकी लंबाई घटाई-बढ़ाई जा सकती है। अभंग के एक हिस्से का पूर्ण होना उसके आखरी, यानी चौथे चरण से पता चलता है क्योंकि वह अन्य तीन चरणों की तुलना में कम लंबा होता है। विभिन्न गेय पद्धतियों से तुकाराम की रचनाएं समृद्ध हैं।) कविताओं की ओर लोगों का रुझान उनकी रचनाओं के कारण हुआ है। हर पीढ़ी ने गद्गद् होकर उनके अभंग गाए। उनकी पोथी की प्रतियां बनती रहीं। केवल धार्मिक और अनपढ़ श्रद्धालुओं तक ही उनका प्रभाव सीमित नहीं रहा बल्कि समाज के सभी स्तरों में उनकी गाथा समान रूप से लोकप्रिय है। पिछले साढ़े तीन-सौ सालों में विकसित होते आए मराठी के गद्य और पद्य साहित्य पर गाथा का गहरा प्रभाव है। हर भाषा के इक्के-दुक्के कवि के भाग्य में ऐसा सौभाग्य होता है। जिस प्रकार कबीर, शंकरदेव, तुलसीदास, वेमन्ना, शाह लतीफ या ग़ालिब अपनी भाषाओं के साथ चिरकालिक रूप से जुड़े हुए हैं उसी प्रकार तुकाराम मराठी मन की सार्वकालिक अभिव्यक्ति हैं। आम लोग बुनियादी नैतिकता के रूप में उनके अभंगों का प्रयोग करते हैं। विद्वत्जन अपने कथन को वजन देने के लिए संत तुकाराम के अभंग की पंक्तियां उद्धृत करते हैं।"
गाथा से उनकी कुछ रचनाओं का यहां प्रस्तुत है अर्थविस्तार। अनुरोध है कि इस बारे में आप अपनी राय यहां ज़रूर दर्ज करें। पढ़ते हुए तुकाराम को जानने की और हिंदी पाठकों तक उनकी रचनाओं को पहुंचाने की यह एक अदना कोशिश है। आपका सहयोग उत्साह को निरंतर बनाए रखेगा। धन्यवाद - संध्या पेडणेकर
संत तुकाराम (1609-1650) |
अभंग -
ढेंकणासी बाज गड।उतरचढ केवढी।।1।।
होता तैसा कळों भाव।आला
वाव अंतरीचा।।धृ।।
बोरामध्ये वसे अळी।अठोळीच
भोवती।।2।।
पोटासाठी वेंची चणे।राजा म्हणे तोंडे मी।।3।।
पोटासाठी वेंची चणे।राजा म्हणे तोंडे मी।।3।।
बेडकाने चिखल खावा।काय ठावा सागर।।4।।
तुका म्हणे ऐसें आहे।काय
पाहे त्यांत ते।।5।। (2452
शा. गा.)
तुकाराम कहते हैं कि
व्यक्ति के अनुभवों की जितनी पहुंच होती है जीवन के विस्तार की उसे उतनी ही अनुभूति होती है। अपनी
बात को स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं - खटमल के लिए खाट पर चढ़ना किसी
पहाड की चोटी पर चढ़ने से कम कष्टकर और परिश्रमसाध्य नहीं होता। बेर में पलनेवाली
इल्ली के लिए बेर का छिलका अभेद्य होता है। गड्ढे में भरे कीचड में
लोटनेवाले मेंढक को वह गड्ढा ही समंदर लगता है क्योंकि समंदर की विशालता उसने कभी देखी नहीं। चने खाकर पेट पालनेवाला भी अपने को राजा कहलाता है क्योंकि
राजा होने के सही मायनों से वह अपरिचित है। तुकाराम कहते हैं कि जो है सो ऐसा है,
हमें दिखाई वही देता है जो हम देखते हैं इसीलिए अपनी
नज़र को सीमित न रखो।
तुकाराम कहते हैं कि, सृष्टि के चक्र में हर प्राणि के जीवन की कुछ सीमाएं हैं
लेकिन अनुभवों के सहारे वह इन सीमाओं से परे पहुंच सकता है। इसीलिए, अपनी अनुभूति की क्षमता को विस्तार दो। भले आपके शरीर की
क्षमता बलाढ्य की-सी हो, लेकिन अगर आपकी जान खटमल-सी है तो आपको खाट पर चढ़ना-उतरना
भी पहाड की चोटी पर चढ़ने-उतरने जैसा कष्टसाध्य महसूस होगा। कितना छोटा होता है
बेर का फल, लेकिन उसके अंदर बसी इल्ली के लिए वही समूची दुनिया
है। इल्ली में इतना बल नहीं कि वह उस कवच को भेद कर बाहर झांके, देखे कि बाहर की दुनिया कितनी विशाल और चमत्कारपूर्ण है। वह अंदर ही अंदर अपने शरीर को लपेटती
रहती है और सोचती है कि दुनिया का विस्तार बस बेर के गूदे भर ही है। उसीकी तरह
गरीब व्यक्ति कभी राजा की ज़िंदगी के बारे में सोच नहीं सकता। भरपेट चने फांकना ही
उसके लिए सुख की इति होती है क्योंकि ऐसा सुख भी उसे वास्तव जीवन में कभी कभार ही
नसीब होता है, लेकिन अपने को वह किसी राजा
से कम नहीं आंकता। छोटे छोटे गड्ढों के कीचड में लोट लगानेवाले मेंढ़क की दुनिया
उस गड्ढे तक ही सीमित होती है। समंदर की विशालता उसकी कल्पना से परे की चीज है। उनकी
अनुभूति उस गड्ढे जितनी ही छिछली होती है। तुकराम कहते हैं कि आप जैसा महसूस करते
हैं आपकी दुनिया वैसी ही होती है। इसलिए अपनी अनुभूति को विस्तार दो, अपनी दुनिया
के क्षितिज को विस्तार दो। जीवन को संपन्न बनाने के लिए यह ज़रूरी है।
खटमल, इल्ली या मेंढ़क जैसा जीवन जीकर अपने आपको राजा कहलाने से
जीवन व्यर्थ ही व्यतीत होगा। अपनी अनुभूति की सीमाओं को विस्तार देकर समष्टि को
अपने भीतर उतरने दो। अनुभवों के कपाट खोलो। समष्टि को व्यष्टि में समाने दो। तब
व्यष्टि और समष्टि का भेद मिट जाएगा, आकार निराकार होंगे। जीव-शिव का भेद मिट
जाएगा। सारी सीमाएं, सारे क्षितिज पिघल कर बह जाएंगे।
पुणे के पास देहूगांव में
तुकाराम का जीवन बीता। वहां के समाज का, वहां के लोगों की जीवनशैली का प्रतिबिंब उनकी रचनाओं से उभर कर सामने
आता है। रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी बातों के सहारे वे जीवन की अनमोल सीख
दे जाते हैं। जब रोजमर्रा की बातों के सहारे अपनी बात लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की जाती है तो समाजमन में वह ज़्यादा गहरे पैठती है। इस बात का सर्वोत्तम उदाहरण तुकाराम की रचनाओं में हमें देखने मिलता है। सीधी-सादी भाषा में, बिना अलंकरण या बोझिल बिंबों के, सहज शैली के साथ कही उनकी बातें समझना आम जन के लिए आसान है। समझाने के लिए उदाहरण भी वे साधारण लोगों के अनुभवविश्व से जुड़े ही लेते हैं जिससे कि कथ्य समझने में आसानी होती है। उनकी रचनाओं की ऐसी खासियतों ने ही उन्हें लोकोत्तर कवि बना दिया है।